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‘सुल्तान अहमद की रचनाशीलता’ को पढ़ते हुए

करतारसिंह सिकरवार और ईश्वरसिंह चौहान द्वारा सम्पादित पार्श्व पब्लिकेशन से प्रकाशित “सुल्तान अहमद की रचनाशीलता” में 36 लेखों को पाँच भागों में विभाजित किया गया है- ‘परिवेश’(परिवेशगत परिचय), ‘पहचान’ (रचनाकार का मूल्यांकन),‘लेखा’(रचनाशीलता का विवरण ), ‘परख का सिलसिला’(कवि-लेखक का क्रमिक विकास) और ‘तुलना’(चीनु मोदी के साथ) । ‘तुलना’ में सिर्फ़ एक ही लेख है, जबकि यहाँ अवकाश अधिक था । अधिकांश लेख स्थापित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । फ्लैप पेज पर या अन्यत्र सुल्तान अहमद का सामान्य परिचय दिया गया होता तो  उनके नये पाठकों को भी सुभीता होती । कुछ लेख परिचयात्मक हैं, तो कुछ आस्वादमूलक और विवेचनात्मक । समीक्षात्मक लेखों में सुल्तान के मिज़ाज, काव्य-दृष्टि और शिल्प की समझ को परखा गया है । ये लेख अलग-अलग लेखकों द्वारा समय-समय पर विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, अतः लेखक के कृतित्व आदि की जानकारी में पुनरावर्तन स्वाभाविक है । 

शिवकुमार मिश्र, हरियश राय, आलोक गुप्त, दूधनाथ सिंह, महावीर सिंह चौहान, अखंडप्रताप सिंह, वीरेन्द्र नारायण सिंह, ज्ञानप्रकाश विवेक, श्रीराम त्रिपाठी, वशिष्ठ अनूप, रेखा शर्मा के लेख विशिष्ट हैं । सुल्तान की ग़ज़लों को पढ़ते हुए यदि कबीर याद आते हैं, तो निश्चय ही कोई बड़ी बात है । रघुवीर चौधरी के शब्दों में “..सामाजिक संदर्भ आखिरी शेर में छलांग लगाकर कबीर की खुद्दारी तक पहुँच जाता है।”1 अपने आप से न बनने की बात कबीर में है । मिट्टी की महिमा एवं सृजन क्षमता की पहचान कवि को है । ‘मायावी मध्यलोक में’ त्रिशंकु को जब आत्मबोध होता है तो वह कहता है-‘मिट्टी की ओर मुझे ले चलो’ । वास्तव में, “मिट्टी में सृजन क्षमता है । आँखो को नज़र आनेवाली सृष्टि का ज़रिया मिट्टी ही है । मिट्टी बनकर ही स्वाभिमान उँचाइयों को छू सकता है।”2

उनसे कह दो कि हम हैं, ख़ुद मिट्टी, 
हमको मिट्टी में क्या मिलाओगे ?
और.....
मैं तो वो शख़्स हूँ खुद से नहीं बनती जिसकी 
मुझसे बेकार में क्यों आप निभाने आये । 

कवि को सदैव अपनी रचना से संतोष नहीं होता, वह उसमें संशोधन करता रहता है। सुल्तान ने कविता, ग़ज़ल, हाइकू, दोहा, रुबाई, कत्आ, कहानी, आलोचना, संस्मरण आदि पर लेखनी चलाई है। सुल्तान जिस परिवेश में पले-बढ़े उसका सही-सही पता और विषयवस्तु की सूझ डॉ.रघुवीर चौधरी ने नपे-तुले शब्दों में दी है- “ ‘दूसरा जौनपुर’ के रूप में पहचाना जानेवाला एक विस्तार का परिचय मुझे वर्षों पहले हिन्दी के प्रगतिशील कवि- विवेचक सुल्तान अहमद द्वारा हुआ था।” 3

सुल्तान अहमद की रचनाओं के संदर्भ में कुँवरपाल सिंह मानते हैं कि ‘अच्छी कविता अब भी संभव है’ ।4  प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े और अनुभूत सत्य को अभिव्यक्त करनेवाले सुल्तान अहमद की रचनाओं में श्रमजीवी, संघर्षरत आमआदमी केन्द्र में है, “कामुक औरतों के दैहिक भूगोल पर या सुविधावृक्ष पर या पिलपिले पुरुषों के मन की कविताएँ उसका काव्य विषय नहीं है ।”5 ‘कलंकित होने से पूर्व’ की पड़ताल करते हुए डॉ.आलोक गुप्त कहते हैं- “सुल्तान अहमद की कुछ कविताओं में आत्मालोचन और आत्मसंशोधन की प्रवृत्ति दिखाई देती है ।”6 यानी  कुछ कविताओं को छोड़कर आत्मालोचन और आत्मसंशोधन की आवश्यकता है । इसी बात को श्री राम त्रिपाठी सुल्तान की तीनों कविता संग्रह – ‘कलंकित होने से पूर्व’, ‘उठी हुई बाँहों का समुद्र’, और दीवार के इधर-उधर की समीक्षा करते हुए कहते हैं- “सुल्तान अहमद को आत्म निरीक्षण और विश्लेषण की प्रवृत्ति को बढ़ाना होगा।...... उनकी समस्या हड़बड़ी और आत्मलोचन का आभाव है ।”7

भाषा,धर्म,जाति,भौगोलिक-स्थितियों आदि में पर्याप्त भिन्नता होने के बावजूद अनेकता में एकता भारत की वैश्विक पहचान है । कुछ अवसरवादी-स्वार्थी ताकतों द्वारा समय-समय पर अमानवीय-क्रूर एवं शर्मनाक हरकतें होती रही हैं, इससे आम आदमी तबाह होने के साथ-साथ देश की ग़ैरसाम्प्रदायिकता पर भी सवालिया निशान लगे हैं । ‘नदी की चीख़’ और ‘दीवार के इधर-उधर’ जैसी रचनाएँ पाठक को झकझोरती हैं, शासन व्यवस्था और राजनीति के बारे में सोचने को विवश करती है । सुल्तान अहमद  की ग़ज़लें “आदमियत की सही पहचान करती ही हैं,हमें भी उस ज़मीन तक ले जाती हैं जहाँ आदमी अपनी आदमीयत को सहेजे –उन आक्रामक त़ाकतों से जूझ और लड़ रहा है- जो आदमीयत को नेस्तनाबूद कर देने के लिए आमादा है ।”8 ‘नदी की चीख’ और ‘दीवार के इधर-उधर’ जैसी रचनाओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन आवश्यक है । महावीर सिंह चौहान, शिवकुमार मिश्र, चन्द्रकुमार जैन, हरियश राय आदि लेखकों ने समाजशास्त्रीयता की ओर संकेत किये हैं । 

सुल्तान अहमद की लम्बी कविताएँ विषयवस्तु और रचनाविधान की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । ‘हम वहाँ हैं महाकवि’, ‘गैलीलियो की आँखें’ जैसी कविताओं पर पर्याप्त चर्चा होनी चाहिए । अमेरिका की कथनी और करनी में बड़ा अन्तर रहा है, वह अपनी नीतियों से सुपरपावर बन गया । साम्राज्यवादी नीति, बाजारवाद, पूँजीवादी व्यवस्था, भूमण्डलीकरण, उदारीकरण आदि से गुलामी का प्रकार बदला है । हमें क्या खाना है ? क्या पहनना है ? कैसा जीवन जीना है ? – यह कोई और तय करता है । “‘लंका की परछाइयाँ’ में जनता  चित्रित रावण और उसकी लंका का यथार्थ समकालीन जीवन की वास्तविकता का प्रामाणिक दस्तावेज है ।”9 ‘मायावी मध्यलोक में’ पौराणिक पात्र त्रिशंकु की स्थितियाँ, इच्छाओं और परिणाम को कवि ने आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत किया है । “कविता में अभिव्यक्त त्रिशंकु की त्रासदी, उसकी पीड़ा, उसका द्वंद्व जीवन को समझने का एक दस्तावेज है ।”10 सुल्तान अहमद की लम्बी कविताओं पर महावीर सिंह चौहान, हरियश राय, दुर्गाप्रसाद गुप्त, अखंडप्रताप सिंह और वीरेन्द्र नारायण सिंह के लेख महत्वपूर्ण हैं। दीवार के इधर उधर में साम्प्रदायिक उन्माद, उसके पीछे की शक्तियाँ, और पीड़ित जनता की अभिव्यक्ति हुई है। कविता के समाजशास्त्रीय अध्ययन की ओर इशारा करते हुए महावीर सिंह चौहान कहते हैं- “हमारे समाज-जीवन में इसप्रकार की घटनाएँ इतनी आम हो गईं हैं कि अब इनको लेकर हम किसी संवेदनात्मक प्रतिक्रया का भी अनुभव नहीं करते ।..... रचनाकार को अपने आसपास की  इस अमानवीय दुनिया में एक विशेष सज्जता के साथ प्रवेश करना होता है । उसे एक परिचित वस्तु को अपने आसपास घटित होनेवाली घटनाओं को कुछ इस रूप में प्रस्तुत करना पड़ता है कि पाठक उसके साथ एक नये ढंग  से अपना रिश्ता जोड़े ।” 11

सुल्तान अहमद का समग्र गद्य लेखन अब तक पुस्तकरूप में नहीं आया है, इससे पाठक और अनुसंधित्सु को कठिनाई होती है । दूधनाथ सिंह, कमलेश भट्ट ‘कमल’, रेखा शर्मा, और ईश्वर सिंह चौहान के लेख इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं । सुल्तान के  शोधार्थियों के लिए जानकारी उपलब्ध करानेवाला लेख ‘गद्य में सुल्तान’12 सूचनापरक है, उद्धृत अंश भी महत्वपूर्ण हैं, संकलन,प्रस्तुति और कुछ विवेचनात्मक अंशों का अपना महत्व है । हरजीत पर लिखे संस्मरण पर की गई टिप्पणी ‘पूरा संस्मरण अति मार्मिक और रोचक जान पड़ता है ’13 अपने आप में दुविधा पैदा करती है ! ‘निर्मल वर्मा की दुरूह कहानियों पर सुल्तान की सरल आलोचना’14 में स्वीकार किया गया है कि सुल्तान पहले कवि हैं –आलोचक बाद में । प्रायः यही माना जाता रहा है, किन्तु शिल्प की रूढ़ियाँ, ग़ज़ल का शिल्प, हिन्दी ग़ज़लः कुछ मीनमेख, हिन्दी ग़ज़लः कुछ और मीनमेख,हिन्दी ग़ज़ल की रिवायतःएक जिरह,राही की शायरी,.........का पुस्तक रूप सामने आये तब बात कुछ बने । 

काव्यांश (यदि ग़ज़ल के शेर हों तो पूछना ही क्या!) को रखते हुए कविता की समीक्षा का चलन आम हो गया है । भावुकता और लेखक के प्रति अहोभाव के कारण कभी-कभी अच्छे लेखों में भी चूक रह जाती है । ‘सुल्तान अहमद की ग़ज़लः एक अध्ययन’15  लेख पढ़ते हुए शंका होती है कि क्या वाकई में यह ‘एक अध्ययन’ है ? सवा चार पेज के इस लेख में ‘चन्द अश्आर’ ने दो पेज घेर रखा है । लेख की भूमिका (ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य)आधे पेज से अधिक है । बाकी का हिस्सा विवेचनात्मक है, यह एक अच्छा लेख बन सकता था। ‘चीखः जो उनसे लड़ाई है’16 सरल,बोलचाल की भाषा में लिखा आस्वाद्यपरक लेख है – ‘कवि सुल्तान अहमद सतत कविता द्वारा रौशनी की तलाश करते हैं ।’ कवि की वर्ग-चेतना की भी लेखक ने पड़ताल की है । चीनु मोदी (गुजराती) और सुल्तान अहमद की ग़ज़लों का तुलनात्मक लेख17 आस्वाद्यमूलक है । आज जब पढ़नेवालों की संख्या चिन्ताजनक है तब ऐसे तुलनात्मक लेखों का महत्व और भी बढ़ जाता है । लेख में उद्धृत अंशों की संदर्भ-सूची रखी गई होती तो बेहतर होता, स्थानाभाव भी कारण हो सकता है । सुल्तान अहमद को हिन्दी ग़ज़ल के शिल्प की काफी चिन्ता है, इसीलिए उन्होंने ‘ग़ज़ल का शिल्प’, ‘हिन्दी ग़ज़लःकुछ मीनमेख,’ ‘हिन्दी ग़ज़लःकुछ और मीनमेख’, ‘हिन्दी ग़ज़ल की रिवायतःएक जिरह’ जैसे कई लेख लिखे, जिनकी प्रशंसा और कटु आलोचना दोनों हुई । ये दोनों “ग़ज़लकार ग़ज़ल की बहर, रदीफ़, काफ़िया और अन्य स्वरूपलक्षी नियमों का पूरे कायदे से पालन करते हैं,”18 चर्चास्पद विधान है । सुल्तान अहमद की ‘मीनमेख’ में तो दुष्यन्त भी सौ फीसदी खरे नहीं उतरते, तो ऐसे विधान पर संदेह होता है । शमशेर बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार, कुँवर नारायण, ज्ञान प्रकाश विवेक, नूर मुहम्मद ‘नूर’, हरजीत सिंह, राजेश रेड्डी, ज़हीर कुरेशी, अदम गोंडवी, सूर्यभानु गुप्त, सुल्तान अहमद आदि ग़ज़लकारों में विषय की विविधता और प्रयोग को देखते हुए यह कहना कि ‘गुजराती की तुलना में हिन्दी का ग़ज़ल क्षेत्र काफी संकुचित और सिमटा हुआ है’19, उचित नहीं है । हाँ, गुजराती में एक प्रकार से खुलापन(मोकणाश) है। आधुनिक गुजराती ग़ज़ल ने परम्परागत उर्दू-फारसी नियमों से कुछ छूट ली है तो कुछ जोड़ा भी है, उसकी अपनी मुकम्मल पहचान है, इसतरह की कोई छूट लेना सुल्तान अहमद शायद ही पसंद करें। खैर, यह एक अलग चर्चा का विषय है ।


1.  सुल्तान अहमद की रचनाशीलता,पृ.12

2. अख़्तर ख़ान, सुल्तान अहमद की रचनाशीलता,पृ.185

3. दिव्य भास्कर,4सित.2011

4. सुल्तान अहमद की रचनाशीलता,पृ.41

5. सत्यपाल यादव का लेख,पृ.174

6. सुल्तान अहमद की रचनाशीलता,पृ.170

7. वही,पृ.118,121

8. शिवकुमार मिश्र का लेख, पृ.19

9. अखण्डप्रताप सिंह का लेख, पृ.63

10. वही,पृ.91

11. सुल्तान अहमद की रचनाशीलता,पृ.54-55

12. ईश्वर सिंह चौहान का लेख,पृ.150

13. वही,पृ.153

14. रेखा शर्मा का लेख,पृ.188

15. राशिद ‘तराज़’,पृ.79

16. करतार सिंह सिकरवार,पृ.181

17. गार्गी शाह,पृ.192

18. वही,पृ.198

19. वही,पृ.193

 

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डॉ. ओमप्रकाश शुक्ल 
गुजरात आर्ट्स एंड सायंस कोलेज, अहमदाबाद

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