logo

पुराक़ल्पन ( Myth) का तात्विक पक्ष और रुद्र देवता

कवि अपनी रचनाको श्रेष्ठ बनाने के लीए प्राय: पुराकल्पन[1] का सहारा लेता है । पुराकल्पन बोध देने के लीये , मनुष्यकी निर्बलताको छुपानेके लिए , जीवनका मर्म समजाने के लिए पुराकल्पनका प्रयोग होता है । वैसेभी हरकोइ समाजका मनुष्य अपने पूर्वजोके बारेमेंभी कोइन कोइ पुराकल्पन प्रदर्शीत करता रहता है । ( जैसे मेरे दादाजी 10 लड्डु बडी सरलतासे खा जाते थे। ,या मेरे चाचाने अकेले चोरोको भगा दीया था । )

कहने का मतलब है की कोइभी व्यक्ति अपनी या अपने लोगों के बारेमें एसी बाते अपने से छोटे बच्चोको या अनजान लोगोको कुछ इस तरह पेश करता है की उसमे रोचकता या जिज्ञासा बनी रहे । उसी तरह हरेक आदमी अपने पूजनीय देवता या देवताके बारेमे सत्यके साथ आधिदैविक बाते जोड देता है की बाकी लोगों को उस बातमे रुचि बनी रहे । मगर ये बात भी पूर्ण सत्य नहीं है , मगर हमारे जो देवता या ईश्वर संबन्धी सिद्धांत है उसको सत्य प्रमाणित करने के लिए पुराकल्पनकी आवश्यता है । पुराकल्पन वो सत्य है जो अनेकोको आश्वासन और हमारी बुद्धिको शांत करने वाला है । प्रश्न सिर्फ उसको उसको बुद्धिके साथ जोडना चाहिए या श्रद्धासे जोडना चाहिये वही है ।

दुसरी एक बात वो भी है की जो चार प्रकारके प्रमाण [2] नैयायिकोने हमारे यहा स्वीकारे है , उसमे शब्द प्रमाण या आप्त प्रमानका भी स्वीकार बडी सहजताके साथ किया गया है । पुरा कल्पनमें शब्द प्रमाणका ही ज्यादातर उपयोग किया जाता है । जसेकी शंकराचार्यने अपनी समाधि अवस्थामें शिवका स्वरूप दर्शन किया और ‘वेदसारशिवस्तोत्रम्’ की रचना की है । जैसे की...

पशुनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम् ।
जटाजुट मध्ये स्फुरदगांगवारिं महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम् ॥

प्रस्तुत श्लोकमें शिवजीके बाह्य स्वरूपका वर्णन किया गया है । गजेन्द्र चर्मको धारन करने वाले , जिसकी जटाजूटके मध्य से गंग़ाका जल बह रहा है । इस श्लोक मे किया गया वर्णन और पूरे स्तोत्रमे किया वर्णन आह्लादक है , मगर इस स्वरूप निरूपण मे ‘आप्त प्रमाण’ का स्वीकार करना चाहिए क्यूकि शंकराचार्य जैसे बहुश्रुत और अति ज्ञानी पुरुषकी हरेक बातमें अपना सत्य अनुभूत होता है । कहने का मतलब ये है की जबतक कल्पनको आप्त प्रमाणके साथ जोडा नहीं जाता तबतक पुराकल्पन सिर्फ एक जादूइ कहानि बनके रह जायेगी ।

क्ल्पन का तात्विक अर्थ : कल्पन (न.) ( क्लृप् + ल्युट् ) बनाना । सजाना । सुव्यवस्थित करना । पूरा करना । कार्य मे परिणत करना ।[3] अर्थात् कल्पनका अर्थ बडा स्पष्ट है की

  • कोइभी बात को कल्पनके माध्यमसे सुव्यवस्थित किया जा सकता है ।
  • सजाया जा सकता है । अर्थात् जो अस्पष्ट या बीखरी हुइ बात सुव्यवस्थित ढंगसे पेश करना।
  • नयी बात रखी जा सकती है ।
  • कोइ भी बात को कार्यमे परिणत करने के लिये कल्पनका सहारा लिया जाता है ।
  • कल्पन सत्यका ही एक स्वरूप है , कल्पनका अर्थ कल्पना कतइ नहीं है । जो आप्त प्रमाणसे प्राप्त है ।
शैव सिद्धांत

आज दक्षिण भारतमें एक अत्यंत प्रचलित मत है । वैसे तो शैव मत दक्षिण भारतमें इस्वीसन् के पूर्व से ही प्रचलित था , किंतु इसे बौद्ध और जैन मत का विरोधी होने के कारण अधिक बल प्राप्त हुआ , जिनको उसने वैष्णव मत के साथ मिलकर इसा के पश्चात् की पांचवी अथवा छ्ठी शताब्दी में दबा दीया । लगभग ग्यारहवी शताब्दी में इसने शैवसिद्धांत के नामसे एक विशिष्ट दर्शन को परिष्क़ृत रूप दिया ।

अठ्ठाइस आगमों को मान्यता प्राप्त है ,जिनमे से मुख्य है कामिक , जिसमे वह विभाग भी आ जाता है जो ज्ञान के विषय का प्रतिपादन करता है । इसे मृगेन्द्र आगम का नाम दिया गया है । [4]

सिद्धांत –
  • सर्वोपरि यथार्थ सत्ता को शिव कहा गया है , और वह अनादि , अजन्मा , सर्वथा निर्दोष , सब कार्योका कर्ता , और सर्वज्ञ है जो जीवात्माओं को उन बन्धनों से मुक्ति दिलाता है जो उन्हें जकडे हुए है ।
  • शिव नित्य स्थायी है ।क्यों की वह कालके द्वारा सीमित नहीं है ।
  • वह सर्व व्यापी है , वह अपनी शक्ति के द्वारा कार्य करता है और वह शक्ति जड न होकर चेतन शक्ति है और वही ईश्वरकी देह है । यह देह पांच मंत्रोसे बना है और सृष्टि के सृजन ,धारण, तथा विश्वके विनाश ,तिरोधान और जीवात्माओके मोक्ष – ईन पांच अकार व्यापारों का उपकरण बनती है ।
शिवपुराण

पुराणोमें शिवपार्वती की उपासना विधिका विस्तृत वर्णन है । शिव पुराणमें दक्षयज्ञभंग प्रसंग , कामदहन कथा ,शिवका अष्टमूर्ति स्वरूप , विशवव्यापक शिव , ओमकार स्वरूप शिव का वर्णन मिलता है ।

यजुर्वेदके रुद्र सूक्त (अध्याय – 16)

यजुर्वेदमें रुद्राष्टाध्यायीके मंत्र प्रसिद्ध है । सामान्यत: एकादश रुद्रो कहेलाते है । रुद्र क्रोधी है , वो दुश्मनोको मारनेवाले देव है।

हरि : ओम नमस्तेरूद्रमन्नय वौतोतैषवेनम-।
बाहुब्भ्यामुततेनम: ॥1॥ ( रुद्र सूक्त )

मगर धीरे धीरे रुद्र और शिव एक हो जाते है । रुद्र सर्वद्रष्टा है । यजुर्वेदके ऋषि ने सर्व रौद्र स्वरूपोमे उग्र व्यक्तिओमें और प्रकृतिके रुद्रस्वरूपमे भगवान रुद्रको देखा है ।

रुद्र स्तुति प्रिय है । उनकी काया सौम्य और मंगलमय है । वाणीके अधिपति है । वेदके श्रेष्ठ व्याख्याता है । वो सर्वत्र व्याप्त है । ( मंत्र- 06 ) इंटरनेटके माध्यमसे शिव पुराकल्पनके बारेमे कइ नयी चिजे हमारेजानने मे आती है ।[5]

शिव हमारे आदि देव है । जो हमारी आदिमताके सुरक्षक है । जीवनके जो परम कल्याणकारक सिद्धांत है वो शिवके साथ जुडे हुए है । शिवका स्वरूप सदासे ही ज्यादा विश्वसनीय रहा है ।

यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ।
शिव महिम्न: स्तोत्रम् (मंत्र-6)

पुराकल्पनका तात्विक पक्ष

पुराकल्पनकी कइ ऐसी बाते है जो आम आदमी के मस्तिष्कमें नहीं जा सकती । पुराकल्पनको समजने के लिए कुछ बातो को प्रथमसे ही समज लेनी पडती है, उसके बाद ही पुराक्ल्पनकी सैद्धांतिक बाते हमारे समजमें आ सकती है ।

  • पुराकल्पन अपने आपमे एक अलग सिद्धांत नहीं है । मगर जो कुछ बाते हमारे दिमागमे जल्दी से प्रवेश नहीं करती वो पुराकल्पनके माध्यमसे समजी जा सकती है । जो लोग तपस्वी है उन्होने सांकेतिक भाषामें अपने अनुभव अपने साहित्यमें उजागर कीये है । जैसे कोइ नवलकथाकार अपनी कहानिमे जो स्थितीयां बयां करता है वो लगती है काल्पनिक मगर वो कीसीन किसी से तो जुडी होती है ।
  • पुराकल्पन सूक्ष्मकी अन्दरकी रंगीन दुनिया है । जैसे की पानी के बून्दका प्रत्यक्ष नजरसे देखा जाये तो कोइ रंग नहीं है । मगर त्रिपरिमाणिय काचसे देखा जाते तो मेघधनुषके सातो रंग उसमे दिखाइ देते है ।
  • पुराकल्पन विकसीत व्यक्तिओके मनकी पेदाइश नहीं है , मगर विकसीत होने के लिए रची हुइ दुनिया है ।
  • पुराकल्पन हमसे जो दुरूह और अशक्य है , उसके बारेमे अतिशय मेधावी लोगोका मत भी स्वीकृत होता है ।
  • पुराकल्पन सत्यके आगे का ऋतका मार्ग है । जो परम सत्यकी और ले जा सकता है ।
  • जैसे शंकराचार्यने अपने स्तोत्रकाव्यो मे अपने तपश्चर्या के बाद जो अनुभव हुआ उसका वर्णन अपने स्तोत्रोमें किया है । जैसे , श्री शिवस्य प्रात: स्मरनम् ,श्री मानसपूजा ,शिवपंचाक्षरस्तोत्रम् ,शिवाष्टकम् ,शिवमावल्यष्तकम् ,अर्धनारीश्वरस्तोत् , शिवापराधक्षमापन स्तोत्रम् वगेरा ।
  • शंकराचार्यके सभी स्तोत्रोमें प्रस्तुत वर्णन आप्त वचन के प्रमाणसे सत्य मानने पडेंगे । क्यूंकी प्रमाण अंतमे हमें सत्यकी और ले जाता है ।

संदर्भ:::

(1) Myth ( Noun) = an ancient , fictional story , especially one dealing with gods ,heroes etc , ( fiction = which tell of imagined ,do not real , characters and events )
(2) प्रमाण = प्रतियते अनेन , (प्र + मा + ल्यूट्) माप, नाप, आकार ,परिमाण , मात्रा । अधिकारी या वह पुरुष जिसका कथन अन्तिम होता है।यथार्थ ज्ञान या शुद्ध बोध । यथार्थ ज्ञान प्राप्तिका साधन। नैयायिकोने चार प्रमाण माने है :प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान और शब्द । वेदान्ति और मीमांसक इन चार के अतिरिक्त अनुपलब्धि और अर्थापत्ति दो और प्रमान मानते है ।
(3) शब्दकोश - संस्कृत – शब्दार्थ कौस्तुभ ,संपादक- द्वारका प्रसाद शर्मा तथा तारीणिश झा , पृष्ठ 310
(4) भारतीय दर्शन –डॉ.राधाक्रिष्णन ,अनुवाद –नन्दकिशोर गोभिल , पृष्ठ -633- 635
(5) From Wikipedia- ‘Shiva is considered the supreme deity, the ultimate source and goal by the Saivite sect. The Pashupata, Shaiva Siddhanta and some other sects view Shiva s equal to, or even greater than the Absolute (Brahman). Shiva’s character, unlike Vishnu is ‘ambivalent,’ (unsure) as he can be a moral and paternal god, or a god of outsiders, of those outside the Brahmanical mainstream, worshipped in various ways. Several Tantric cults are also associated with Shiva.
In classical Hindu mythology Shiva is the god of destruction, generally portrayed as a yogin who lives on Mount Kailasa in the Himalayas. His body is smeared with ashes, his hair piled up in matted locks. He wears an animal skin and carries a trident. A cobra often serves as his garland and the crescent moon as his hair ornament. He has a third eye, kept closed in the middle of his forehead. He may be surrounded by his beautiful wife Parvati, and their two sons, the six-faced Skanda and the elephant-headed Ganesha.
The ancient name of Shiva is Rudra, the Wild God. The Rig-Veda (10.61 & 1.71) tells that when time was about to begin he appeared as a wild hunter, aflame, his arrow directed against the Creator (Prajapati) making love with his virgin daughter, the Dawn (Usas). The Creator, terribly frightened, made Rudra Lord of Animals (Pasupati) for sparing his life.
Shiva destroys Kama, the god of erotic love, with the fire from his third eye when Kama attempts to disturb his ascetic trance. Subsequently Parvati, daughter of the Himalaya, wins Shiva’s love through her own ascetic penance and persuades him to revive Kama in disembodied form’.

*************************************************** 

प्रा.डॉ.राकेश आर. पटेल
पी.के.सी.एम. कॉलेज ,गांधीनगर

Previousindexnext
Copyright © 2012 - 2024 KCG. All Rights Reserved.   |   Powered By : Knowledge Consortium of Gujarat

Home  |  Archive  |  Advisory Committee  |  Contact us