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स्त्री के एकाँकी जीवन की पीड़ा की सक्षम अभिव्यक्ति : ‘अकेली’


3 अप्रैल 1931 के दिन जन्मी मन्नू भण्डारी का आधुनिक लेखिकाओ मे महत्वपूर्ण स्थान है |अपनी रचनाओ मे मन्नूजी ने बृहत्तर सामाजिक आयामों की व्यापक जीवनदृष्टि प्रस्तुत की है |जिसके अंतर्गत उन्होने बदलते मूल्यों, टूटते संबंध, एकाकीपन, कुण्ठा, तनाव, अन्तद्वन्द से ग्रस्त मानव की मानसिकता एव संवेदना को मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया है |

नारी होने के नाते नारी की व्यथा को मन्नूजी ने अपने नारी पात्रो मे साकार किया है |प्राय: प्रत्येक समाज मे सादियों से स्त्री को सामाजिक सुविधा के एक साधन के रूप मे अधिक प्रयोग मे लिया गया है | मन्नूजी ने अपनी कहानी ‘अकेली’ मे सोमा बुआ के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि हमारी इस सामाजिक व्यवस्था मे सोमाबुआ जैसी अनेक स्त्रीया अकेलेपन की पीड़ा को जेल रही है |

कहानी की शुरुआत मे हम देखते है कि सोमा बुआ के जवान बेटे की मौत हो जाने से उनके पति आघात सहन न कर पाने के कारण घर-बार छोडकर तीर्थवासी हो जाते है और सोमा बुआ अकेली हो जाती है| पिछले बीस साल से सोमा बुआ एकाकी जीवन व्यतीत कर रही है |उनके तीरथवासी पति हर साल एक महीने के लिए घर आकर रहते थे,पर पति के आने से सोमाबुआ का मन और भी मुरझाया हुआ रहता था| क्योकि-“पति के स्नेहहीन व्यवहार का अंकुश उनके रोज़मर्रा के जीवन की अबाध गति से बहती स्वच्छंद धारा को कुंठित कर देता |उस समय उनका घूमना-फिरना ,मिलना-जुलना बन्द हो जाता और सन्यासीजी महाराज से तो यह भी नहीं होता कि दो मीठे बोल-बोलकर सोमा बुआ को ऐसा सम्बल ही पकड़ा दे,जिसका आसरा लेकर वह उनके वियोग के ग्यारह महीने काट दे |”1 अपनी ऐसी स्थिति मे सोमा बुआ को अपनी जिन्दगी पास-पड़ोसवालों के भरोसे ही काटनी पड़ती थी|किसी के घर मुंडन हो,छठी हो,जनेऊ हो,शादी हो या गमी ;बुआ पहुच जाती है और फिर वहा अपने घर की तरह काम करती |

किशोरीलाल के यहा उनके बेटे का मुंडन था | सोमा बुआ बिना बुलावे के चली जाती है,इस पर उनके सन्यासी पति के साथ कहा-सुनी हो जाती है| राधाभाभी बुआ को समजाती है कि-“अरे रोती क्या हो बुआ ! कहना-सुनना तो चलता ही रहता है| सन्यासीजी महाराज एक महीने को तो आकर रहते है,सुन लिया करो,और क्या ?”2 राधाभाभी को जवाब देते हुए बुआ रोते हुए बताती है कि “सुनने को तो सुनती हू पर मन तो दुखता ही है कि एक महीने को आते है तो भी कभी मीठे बोल भी नहीं बोलते|”3 पूरे सालभर पास-पड़ोसवालों के सहारे जिन्दगी बितानेवाली बुआ एक महीने के लिए घर आये अपने सन्यासी पति से दो मीठे बोल के लिए तरसकर रह जाती है|

सोमा बूआ अपने जवान बेटे हरखू का असमय निधन हो जाने के कारण बुआ दूसरो के बेटों को अपना बेटा मानकर मन मनाती है –“मेरे लिए जैसा हरखू वैसा किशोरीलाल ! आज हरखू नहीं है इसी से दूसरों को देख-देखकर मन भरमाती रहती हू “|4 इतना कहते-कहते बुआ हिचकिया लेने लगती है|

कई सप्ताह बाद बुआ को यह खबर मिलती है कि उनके देवरजी के ससुरालवालों की किसी लड़की का सम्बन्ध उनके गाव के भागीरथजी के यहा हुआ है और जल्द ही शादी का मुहूर्त आनेवाला है |बुआ को यह आशा है कि उनके देवर के समधी (रिश्तेदार)है तो उनको भी बुलावा जरूर आयेगा| बुआ उस शादी मे जाने के लिए उत्साहित हो जाती है|समधी की लड़की को क्या उपहार दिया जाय उसके लिए बुआ पड़ौशवाली राधाभाभी के साथ विचार-विमर्श करती है और पूछती है कि -“क्यों री राधा, तू तो जानती है कि नई फैशन मे लड़की की शादी मे क्या दिया जावे है ? समाधियों का मामला ठहरा, सो भी पैसेवाले|खाली हाथ जाऊँगी तो अच्छा नहीं लगेगा|मै तो पुराने जमाने की ठहरी, तू ही बता दे क्या दे दू ?अब कुछ बनाने का समय तो रहा नहीं, दो दिन बाकी है सो कुछ बना-बनाया ही खरीद लाना|”5 इस शादी मे उपहार देने के लिए बुआ अपने पास जो जमा पूजी थी वह निकालती है |बुआ का अनुमान था कि रुपये ज्यादा निकलेगे, लेकिन सिर्फ सात रुपये ही निकलते है तब बुआ अपने मृत पुत्र की एकमात्र निशानी अँगूठी को बेचकर समधी की लड़की के लिए उपहार लाने का निश्चय किया और राधाभाभी से बोली –“तू तो बाजार जाती है राधा, इसे बेच देना और जो कुछ ठीक समझे खरीद लाना|बस, शोभा रह जावे इतना खयाल रखना |”6 राधाभाभी उपहार की चीजे लाकर सोमा बुआ को दे देती है |

सोमा बुआ अपना एकाकीपन भूलाने के लिए अपने देवर की समधिन की लड़की की शादी मे जाने के लिए जी-जान से तैयारी करती है| बुआ अंत समय तक इंतजार करती रहती है लेकिन ऐन मौके पर कोई बुलावा नहीं आता| राधाभाभी के पुछने पर एकदम सतर्क हो जाती है और अपने से ही बोलती हो ऐसे राधा से पूछती है कि –“पर सात कैसे बज सकते है, मुहरत तो पाँच बजे का था |”7 और अंत: सोमा बुआ अकेली ही रह जाती है |

नारीवाद, स्त्रिसशक्तिकरण के आधुनिक युग मे आज भले ही देश के राष्ट्रपति पद से लेकर लोकसभा अध्यक्ष तक, अवकाशयात्री से लेकर कॉर्पोरेट विश्व तक के पद को शोभायमान किया हो,पर ऐसी स्त्रीया कितनी है? यह एक सोचनीय सवाल है| आज भी भारतीय समाज मे अधिकांश नारिया अपने जीवन मे अनेक दृष्टियों से उपेक्षित है, जिसमे से अकेलापन एक है जिसे प्रस्तुत कहानी मे मन्नूजी ने सोमा बुआ के माध्यम से व्यक्त किया है |

संदर्भ संकेत:

  1. कथा-कुसुम-डॉ. भरत पटेल –पृष्ठ-184
  2. कथा-कुसुम-डॉ. भरत पटेल –पृष्ठ-186
  3. कथा-कुसुम-डॉ. भरत पटेल –पृष्ठ-186
  4. कथा-कुसुम-डॉ. भरत पटेल –पृष्ठ-187
  5. कथा-कुसुम-डॉ. भरत पटेल –पृष्ठ-188
  6. कथा-कुसुम-डॉ. भरत पटेल –पृष्ठ-189,90
  7. कथा-कुसुम-डॉ. भरत पटेल –पृष्ठ-192

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डॉ. कपिला मंगलदास पटेल
आसिस्टंट प्रोफेसर,
आइ.आइ.टी.ई., गांधीनगर, गुजरात.

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