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अवधी और भोजपुरी लोकगीतों में रामकथा


साहित्य एक अभिव्यक्ति है और यह मानवीय अभिव्यक्ति है. मनुष्य के पास अभिव्यक्ति के कई साधन हैं, जिनमें से एक ‘वाणी’ अत्यंत प्रबल और प्रभावी है. वाणी का मूल स्रोत लोकोद्गार है. फलत: किसी भी महान साहित्य को समग्रता से समझने के लिए हमें लोकतत्व की शरण में जाना पड़ता है.

रामकथा के इतिहास पर यदि हम एक नज़र डालें तो “वैदिक युग से लेकर पौराणिक युग तक जैसे-जैसे ज्ञान एवं कर्म की अपेक्षा भक्ति का विकास होता गया, वैसे-वैसे विष्णु के अवतार के रूप में उनकी (राम की) प्रतिष्ठा दृढ़ होती चली गई. वैष्णव भक्ति के उद्भव और विकास की इस परंपरा में रामानुज, रामानंद आदि आचार्यों ने रामकथा को दर्शन एवं भक्ति की सहज ग्राह्य मनोवैज्ञानिक भावभूमि प्रदान की.”1

हिंदू जनता के आराध्य राम के भव्य मिथकीय चरित्र ने प्रागैतिहसिक युग से आधुनिक युग तक विविध रूपों में जनमानस को आकृष्ट किया है. “रामकाव्य परंपरा के उद्भव और विकास का अनुशीलन करने वाले विद्वानों के मतानुसार राम उत्तर वैदिक काल के दिव्य महापुरुष हैं; वेदों में कुछ स्थलों पर ‘राम’ शब्द का प्रयोग अवश्य हुआ है, किंतु उसका अर्थ दशरथ-पुत्र राम नहीं, अपितु अन्यान्य व्यक्तियों से है.”2

मिथक किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान होते हैं. रमेश कुंतल मेघ ने “मिथकों के समय को स्वप्न समय माना है. वहां देशकाल तिरोहित हो जाता है,”3 वे आगे कहते हैं – “इतिहास कभी वर्तमान था, जब भविष्य वर्तमान बनेगा तब वर्तमान भी अतीत हो जाएगा. तदपि मिथकें तो ‘शाश्वत वर्तमान’ हैं.”4

कह सकते हैं कि प्राचीन मिथक कथाएं आधुनिक शिष्ट तथा लोकसाहित्य में नवीन रूप धारण कर जादुई यथार्थ से हमें सम्मोहित करती हैं. रामकथा भी एक ऐसी ही मिथक कथा है, जिसका आदिस्रोत यदि हम आदिकवि बाल्मीकि के रामायण को मानें, तो तब से लेकर आज तक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनेक रामकथाएं लिखी गई हैं, जो अपने समय तथा उद्देश्य के प्रभाव में नए-नए रूप तथा अर्थ धारण करती हैं. अयोध्या में राजा दशरथ के घर जन्मे, विष्णु का अवतार माने जाने वाले भगवान राम का स्वरूप बाल्मीकि रामायण से लेकर अब तक लिखी गई सभी राम कथाओं में देशकाल तथा कवि की व्यक्तिगत सोच के आधार पर वर्णित है. रामकथा के ओज एवं माधुर्य को जनमानस की भावभूमि पर अधिष्ठित करने का श्रेय भक्तिकालीन भक्त कवियों को जाता है. “विद्वान हिंदी की रामकाव्य परंपरा का विकास स्वामी रामानंद से स्वीकार करते हैं. रामावत संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी रामानंद ने राम की मर्यादा भक्ति को आदर्श और आचरण की पवित्रता से मण्डित रखते हुए जनसाधारण के लिए सुगम बनाया.”5

मिथक का ऐतिहासिक विकास होता है तथा वे वेदों, उपनिषदों, पुराणों से निकलकर मध्यकाल तथा आधुनिक काल तक आते-आते बिल्कुल नए रूप धारण करते हैं. अनपढ़, अशिक्षित, निरक्षर लोकजन की कल्पना में उनका रूप कुछ अलग ही होता है. लोकसाहित्य में, लोकगीतों तथा लोकविश्वास में प्रचलित राम तथा रामकथा का अपना एक अलग स्वरूप है.

मैं यहां यह बता देना आवश्यक समझती हूं कि मैंने अपने इस आलेख में अवधी तथा भोजपुरी लोकसाहित्य में प्राप्त रामकथा का बाल्मीकि रामायण, तुलसीकृत रामचरितमानस तथा कुछ अन्य रामकथाओं का तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया है.

आदिकवि बाल्मीकि के रामायण को रामकथा का आदिस्रोत माना जाता है, जिसमें उन्होंने राम को एक महापुरुष के रूप में चित्रित किया है. डॉ. नगेंद्र ने गोस्वामी तुलसीदास की भक्तिभावना को लोकसंग्रह की भावना से अभिप्रेरित बताते हुए लिखा है – “जिस समय समसामयिक निर्गुण भक्त संसार की असारता का आख्यान करा रहे थे और कृष्ण भक्त कवि अपने आराध्य के मधुर रूप का आलंबन ग्रहण कर जीवन और जगत में व्याप्त नैराश्य को दूर करने का प्रयास कर रहे थे, उस समय गोस्वामीजी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के शील, शक्ति और सौंदर्य से संवलित अद्भुत रूप का गुणगान करते हुए लोकमंगल की साधनावस्था के पथ को प्रशस्त किया.”6 सत्य है, तुलसी के दीनदयाल प्रभु श्रीराम अवध के लोक के भी आराध्य हैं. इसीलिए तो मुश्किल परिस्थितियों में लोक अपने आराध्य राम की ही शरण में जाता है तथा अपने अधीर, व्याकुल मन को धीरज प्रदान करने की प्रार्थना करता है –

धै देतेव राम हमारे मन धिरजा, धै देतेव राम...

भारतीय हिंदू जनता के गले का हार, तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ के ‘राम’ जहां एक तरफ लोकजन की आस्था के आदर्श पुरुष राम हैं, वहीं दूसरी तरफ वही लोकजन उनकी गलतियों को माफ नहीं कर पाता. मेरा बचपन अवध के एक गांव में बीता. मैंने बचपन में कई बार एक लोकोक्ति सुनी थी – ‘का तुहैं सीता क सराप लाग बा.’ जब कोई किसी को लम्बे समय तक दुखी, परेशान देखता है तब वह इस लोकोक्ति का प्रयोग उसके लिए करता है. हाल ही में मेरी मुलाकात छत्तीसगढ़ के एक आस्थावान बुजुर्ग सज्जन से हुई, जो ताज़ा-ताज़ा उत्तरभारत की यात्रा के दौरान अयोध्या की धार्मिक यात्रा करके लौटे थे. उन्होंने मुझे बताया कि अयोध्या उन्हें वीरान तथा रौनक विहीन सी लगी. उन्होंने एक स्थानीय निवासी से इसका कारण पूछा कि इतनी प्राचीन, गौरवशालिनी, वैभवसंपन्न नगरी अयोध्या आज इस तरह रौनकविहीन तथा उदास-उदास क्यों लग रही है? तो उस स्थानीय निवासी ने बताया कि यह तो ‘सीता का श्राप’ है. राम ने जब गर्भावस्था में सीता को अयोध्या से निष्कासित किया था तब सीता ने राम को यह शाप दिया कि तुम्हारी अयोध्या अब कभी बस नहीं पाएगी. तब से लेकर आज की तारीख तक हम - आप, सभी इस बात के गवाह हैं कि राम की अयोध्या आज तक नहीं बस पाई है. राममंदिर राजनैतिक स्वार्थ की भेंट चढ़ा हुआ है, सांप्रदायिक टकराव का कारण है तथा अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय है; या फिर सीता के शाप की एवज़ में आम जनमानस के आक्रोश की विद्रूप परिणति है. वजह जो भी हो, राम को ईश्वर मानकर पूजने वाली जनता की अदालत में राम अपराधी भी हैं तथा सज़ा भी काट रहे हैं. यह आस्थावान, तर्कों से परे जनता का लोकविश्वास है.

मैंने अपना शोधकार्य अवधी एवं भोजपुरी लोकगीतों पर किया है. उस दौरान संकलित लोकगीतों में मैंने पाया कि इसमें पूरी-की-पूरी रामकथा लोक वैशिष्ट्य के साथ मौजूद है. रामकथा की कड़ियां जोड़ते हुए कुछ लोकगीतों की चुनी हुई पंक्तियां मैं यहां उद्धृत करना चाहूंगी, तत्पश्चात कुछ विशेष प्रसंगों की आलोचनात्मक तथा तुलनात्मक समीक्षा प्रस्तुत करूंगी.

अवधी के एक लोकगीत के अनुसार राजा दशरथ एक दिन अपनी सभा में बैठकर सोचने लगे, मेरे एक भी पुत्र नहीं हैं, जीवन कैसे बीतेगा? यह सोचकर वे गुरु के पास गए तथा उनसे निवेदन किया कि कुछ ऐसा उपाय बताएं ताकि घर में बधाई बजे –

सभवा मा बैठि राजा दसरथ मनहिं मन सोचैं हो.
रामा नाहीं घर एकहु बलकवा कइसे दिन कटिहैं हो.
*** *** ***
रामा जाय पहुंचे गुरु द्वारे तौ ठाढ़े अरज करैं हो.
गुरु ऐसन जतन बताओ बधैया घर बाजै हो.

उपरोक्त लोकगीत की पंक्ति रामचरित मानस की इस पंक्ति से तुलनीय है –

एक बार भूपति मन माहीं. भै गलानि मोरें सुत नाहीं..
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला. चरन लागि करि बिनय विसाला..7

गुरु के बताए अनुसार राजा दशरथ यज्ञ का आयोजन करते हैं. उसी का प्रसाद रानियां खाती हैं तो उनको पुत्र-प्राप्ति होती है –

जेहि दिन राम जनम भए धरती अनंद भई.
होइ गए सुरपुर सोर अवधपुर सोहर हो.
*** *** ***
चैतहिं की तिथि नवमी तौ नौबति बाजै हो.
बाजइ दसरथ द्वार कौसिल्या रानी मंदिर हो..
उधर राजा जनक के घर सीता का जन्म होता है –

राजा जनक घर जनमीं करिनवां, धगरिन नार छिनै जायं.

पुत्र – जन्म की खुशी में ऊंच-नीच का भाव तिरोहित हो जाता है. राजा दशरथ के महल में अनेकों दास-दासियों के होते हुए राजा दशरथ बच्चे का नाल काटने के लिए ‘धगरिन’ को स्वयं बुलाने जाते हैं. यह लोकतत्व की विशिष्टता है जो राजसी वैभव को पीछे छोड़ देता है –

ऊंच नगर पुर पाटण आले बांसे छाजन हो.
राम लिहे अवतार सकल जग जानै हो..
सोने के खड़उवां राजा दशरथ धगरिन बोलावै चलै हो..

अयोध्या में राम तथा जनकपुर में सीता धीरे-धीरे बड़े होते हैं. लोकतात्विक विशेषता के साथ सीता द्वारा शिवजी का धनुष उठाए जाने, राजा जनक की सीता के योग्य वर प्राप्ति की चिंता तथा सीता द्वारा भवानी पूजा भी लोकगीतों में वर्णित है –

राजा जनक जी अइलैं नहाइ कै मनहिं उदासल.
कवन चरित्र आज भइले धनुष तर लीपल ..
*** *** ***
घुमरि घुमरि सीता पूजेलीं पूजेलीं भवानी.
परसन होई न भवानी त पुरव मनोरथ.
देवि जे हंसली ठठाई के बड़े परसन से.
पुजिहैं मने कै मनोरथ राम बर पावैलु.

राम-सीता विवाह से संबंधित एक लोकगीत दृष्टव्य है –

एक सुंदर घोड़ा, एक सुंदर घोड़ा, राम भए असवार जी.
*** *** ***
गले परी जयमाला, गले परी जयमाला,
सीता बियहि लै जायं जी.

लोकगीतों में राम को मिलने वाले वनवास का संकेत भी है –

सेंधुरा का लै राम घर का जौ लौटे, दांए बांए बोला है काग.
*** *** ***
दान भल पउबा, दहेज भल पउबा, पउबा तू कन्या कुमारि.
चटकी चुनरिया धुमिल नाहीं होइहैं, तुंहका लिखा बनबास..

अवध एवं भोजपुर के लोक के लिए प्रत्येक दूल्हा राम तथा दुलहन सीता हैं. इस क्षेत्र में गाए जाने वाले सोहर तथा विवाह गीतों में दूल्हा राम, दुलहन सीता, माता कौशिल्या तथा पिता दशरथ हैं. तुलसी द्वारा स्थापित आदर्श परिवार की कल्पना इस क्षेत्र के लोकगीतों में भी की गई है –

किया बबुआ रामचंद्र माई बाप निरधन, किया दहेज पवला थोर.
किया बबुआ रामचंद्र सीता छोटी बाड़ीं हो, काहे नयनवा ढुरे लोर हो.
*** *** ***
मचियहिं बैठी कौसिल्या रानी, बौहरि अरज करैं हो.

राम – वन – गमन के समय सीता द्वारा राम के साथ जाने आग्रह –

रघुवर संग जाब अब न अवध मा रहबै.
जौ रघुवर बन फल खइहैं,
फोकली बिनि खाब, अब न अवध मा रहबै..

राम – वन – गमन के पश्चात अयोध्या में छाई वीरानी का चित्रण –

बोलैं अवध मा कागा हो रामनवमी के दिनवा.
केकरे हए राम, केकरे भइया लछिमन
केकरे भरत भुवाला हो राम नवमी के दिनवा. बोलैं अवध मा...

राम का लक्ष्मण तथा सीता के साथ वन में तपस्वी के वेश में निवास, लक्ष्मण रेखा तथा सीता – हरण का प्रसंग भी इन लोकगीतों में है –

राम लखन दूनौ वन कै तपसिया सीता जे रेखवा खिंचाव.
रेखवा बाहर जिन जाइव सीता रावण रथ बइठाय..

हनुमान का अशोक-वाटिका में सीता के पास मुद्रिका गिराना –

सीता सोचैं अपने मन मा मुनरी कंहवां से गिरी.

अंगद का राम का दूत बनकर रावण के दरबार में जाना –

सुनि के लंकापति की बतिया छतिया अंगद की जली.

राम – रावण – युद्ध तथा लक्ष्मण का मूर्च्छित होना –

लछिमन भइया गए चोटाई कपि दवाई लावा ना.

वनवास की समाप्ति के बाद राम का सीता तथा लक्ष्मण के साथ अयोध्या वापसी का कोई लोकगीत अभी तक मुझे नहीं मिला है, किंतु मुझे पूर्ण विश्वास है कि शोध करने पर अवश्य मिलेगा. क्योंकि उसके बाद सीता के वनवास का विशद चित्रण हमें इन लोकगीतों में मिलता है.

सामान्यत: दशरथ के चार पुत्रों का ही वर्णन पुराण एवं इतिहास में मिलता है किंतु ‘चरित्रकोश’ में दशरथ के एक पुत्री होने का भी उल्लेख है. बहुत वर्षों तक दशरथ के कोई संतान न हुई. केवल शांता नाम की एक कन्या दशरथ के थी, उसको भी उन्होंने अपने मित्र अंगदेशाधिपति रोमपाद को दत्तकरूप में दे दिया था.8 लोकगीतों में भी राम की बहन और सीता की ननद होने का उल्लेख है. प्रचलित रामकथा के अनुसार अयोध्या आने के बाद एक धोबी के कहने पर राम सीता को घर से निकाल देते हैं-

एक रजक पत्निहिं कहत डाटत व्यंग वचन सुनावहीं..9

यह सुनकर तुलसी के राम ने राजनीति, धन और धर्म की रक्षा के लिए सीता को त्याग दिया. दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीति, धन और धर्म को ऊपर रखा –

तदपि नृपहिं चहिए सदा, राजनीति धन धर्म.
बसुधा पालहिं सोच तजि, वचन नीति शुचि कर्म..10

बाल्मीकि के राम भी लोकोपवाद के भय से सीता का त्याग करते हैं, हालांकि वे जानते हैं कि सीता पवित्र हैं तथा लव-कुश उनके ही पुत्र हैं –

लोकापवादो बलवान् येन त्यक्ता हि मैथिली.
सेयं लोकभयाद् ब्रह्मान्नपायेत्यभिजानता.
परित्यक्ता मया सीता तद् भवान क्षन्तुमर्हति.
जानामि चेमौ पुत्रौ मे यमजातौ कुशीलवौ.
शुद्धायां जगतो मध्ये मैथिल्यां प्रीतिरस्तु मे.11

भवभूति के ‘उत्तर राम चरित’ में भी राम ने लोकधर्म की रक्षा के लिए सीता को त्याग दिया –

स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि.
आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति मे व्यथा..12

किंतु लोकगीतों में सीता का अयोध्या से निष्कासन धोबी के कहने से नहीं, बल्कि ननद की चुंगली बताई गई है. लोकगीत के अनुसार पहले तो ननद अपनी भाभी अर्थात सीता से रावण का चित्र बनाने को कहती हैं –

भौजी जवन रावन तोहरा बैरी उरेहि देखावहु हो..

और फिर वही ननद भाई श्रीराम से जाकर चुंगली करती है कि सीता तुम्हारे शत्रु रावण का चित्र बनाती हैं –

जेवन बइठे सिरीराम बहिन लोहि लाइन हो.
भइया जवन रावन तोर बैरी त भौजी उरेहैं हो.
अरे अरे लछिमन भइया बिपतिया के साथी हो.
भइया सीता का देसवा निकारा त रवना उरेहैं हो.

लक्ष्मण सीता को ले जाकर वन में छोड़ आते हैं. वहां समयांतर पर बाल्मीकि ऋषि की कुटिया में सीता के दो पुत्रों लव-कुश का जन्म होता है. लोकरीति के अनुसार सीता वन के नाई को पुत्र-जन्म का संदेश लेकर अयोध्या भेजती हैं. लोकगीत में सीता का आक्रोश देखिए –

पहिला रोचन राजा दसरथ, दुसरा कौसिल्या रानी.
तीसरा रोचन लछिमन देवरा रमैया न जनायेव..

लोकगीतकार इस बात से अनभिज्ञ है कि राजा दशरथ की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी है. लोकगीत की सीता पहला निमंत्रण राजा दशरथ को भेजती हैं, दूसरा कौशिल्या को तथा तीसरा देवर लक्ष्मण को, किंतु राम को खबर तक नहीं होने देना चाहतीं. मुझे ऐसा लगता है कि यह आक्रोश अवश्य ही किसी चेतना संपन्न लोकनारी का है, जो सजग है नारी मात्र के शील एवं स्वाभिमान के प्रति.

सीता के माध्यम से यह वस्तुत: लोकनारी का आक्रोश है कि जिस राम ने सीता को गर्भावस्था में घर से निकाला उसे बताना भी मत कि उसको पुत्र उत्पन्न हुआ है. लोकगीत में जनमानस की आस्था के प्रति विद्रोह भी झलकता है. राम भगवान हैं, उनकी पूजा की जाती है. प्राय: हम देखते हैं कि अपने देवता के प्रति क्रांति का भाव हमारे मन में नहीं होता, लेकिन यहां गीत के रचयिता ने राम को ही ‘बायकॉट’ कर दिया है.

भवभूति के ‘उत्तर राम चरित’ में भी वासंती नामक एक स्त्री-पात्र कुछ इसी तरह के भाव प्रकट करती है. वह कहती है कि क्या राम इतने कठोर हैं कि उन्होंने यश के लिए हरिणी सदृश सीता को विपिन में भेज दिया?-

अयि कठोर यश: किल ते प्रियं किम यशोननु घोरमत: परम् .
किम भवद्विपिने हरिणीदृश: कथय नाथ कथं बत मन्यसे ..13

भवभूति ने अपने ‘उत्तर राम चरित’ में राम और सीता का मिलन होते हुए भी दिखाया है, जिसकी वजह से यहां रामकथा के सुखांत होने का भी संकेत है.

लोकगीतों में पुत्र-जन्म की खबर सुनकर राम व्याकुल हो उठते हैं और लक्ष्मण को सीता को वापस अयोध्या लाने के लिए कहते हैं. लक्ष्मण सीता को वापस अयोध्या लाने के लिए जाते हैं किंतु सीता नहीं आतीं और यह कहकर लक्ष्मण को वापस भेज देती हैं कि लक्ष्मण तुम अपने घर जाओ. मैं वापस नहीं आऊंगी. ये दोनों पुत्र यदि जिएंगे तो उन्हीं के कहलाएंगे –

भौजी राम कै फिरा है हंकार त तुमके बुलावैं हो.
जाव लछन घर अपने त हम नाहीं जाबै हो.
जौ रे जियैं नंदलाल त उनहीं के बजिहैं हो.

एक दूसरे स्थान पर, जब राम अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करते हैं, परंपरानुसार कोई धार्मिक अनुष्ठान बिना पत्नी के पूर्ण नहीं होता. राम यज्ञ के लिए गुरु वशिष्ठ को सीता को लेने के लिए भेजते हैं. शायद कहीं उनके मन में यह आशा है कि गुरु का कहना सीता नहीं टालेंगी. किंतु सीता का जवाब देखिए –

गुरु अस कै राम मोहिं डाहेनि कैसे चित मिलिहैं हो.
अगिया में राम मोहिं डारेनि लाइ भूंजि काढ़ेनि हो.
गुरु गरुहे गरभ से निकारेनि त कैसे चित मिलिहैं हो.
तुमरा कहा गुरु करबै परग दुइ चलबै हो.
गुरु अब न अजोधियै जाबै औ बिधि ना मिलावैं हो.

सीता कहती हैं अब मैं अयोध्या नहीं जाऊंगी और विधि मुझे राम से न मिलाएं. इसके विपरीत महाकवि कालिदास कृत ‘रघुवंश’ की सीता जन्म-जन्मांतर में राम को ही पति रूप में पाना चाहती हैं –

साहं तप: सूर्यनिविष्टदृष्टिरूर्ध्व प्रसूतेश्चरितुं यतिष्ये.
भूयो यथा में जननांतरेअपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोग:..14

लोकगीतों के राम स्वयं सीता को लेने जाते हैं. उनकी लव-कुश से भेंट होती है. परिचय पूछने पर लव-कुश कहते हैं –

बाप के नौवा न जानौं लखन के भतिजवा हो.
हम राजा जनक के हैं नतिया सीता के दुलरुआ हो.

यह अवधी लोकनारी का आक्रोश है कि लोकगीतों की सीता ने अपने पुत्रों को पिता का नाम तक नहीं बताया. यह महज आक्रोश नहीं, पूरी-की-पूरी पितृ सत्ता का विरोध है. रामचरितमानस के लव-कुश को भी पिता के वंश के बारे में पता नहीं है –

माता सीय जनक की जाता. बालमीकि मुनि पाल्यौ ताता.
पिता वंश नहिं जानहिं आजू. लव कुश नाम सुनहुं रघुराजू..15

लोकगीतों के राम सीता को अयोध्या चलने के लिए कहते हैं –

रानी छोड़ि देहु जियरा बिरोग अजोधिया बसावहु हो.
सीता तोरे बिन जग अंधियार त जीवन अकारथ हो.
सीता अंखिया में भरलीं बिरोग एकटक देखिन हो .
सीता धरती में गईं समाय कुछौ नाहीं बोलिन हो.

कितना सरल है यह कहना कि सब कुछ भूलकर एक बार चलो, किंतु सीता का आत्मगौरव सब कुछ भूलने को तैयार नहीं है. सीता राम से बात तक नहीं करतीं, अपना सारा दुख आंखों में भरकर सिर्फ एक बार राम की तरफ देखती हैं और धरती में समा जाती हैं. यह नारी की सहानुभूति है नारी के प्रति. यहां न तो राम देवता हैं और न सीता देवी. यहां वे मात्र मानव हैं, समस्त मानवगत कमज़ोरियों के साथ. एक पिता के लिए ये कितनी व्यथा के क्षण हैं कि पुत्र पिता का नाम तक नहीं जानते.

लोकगीत की उपरोक्त पंक्तियां बाल्मीकि रामायण की निम्नलिखित पंक्तियों से तुलनीय हैं –

सर्वान् समागतान् दृष्टा सीता काषाय वासिनी.
अब्रवीत प्रांजलिर्वाक्यमधोदृष्टिरवांगमुखी..
यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये.
तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति.
मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये.
तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति.
यथैतत् सत्यमुक्तं मे वेद्मि रामात् परं न च.
तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति.16

मानव – मानस की ऐतिहासिक विकास की परंपरा में राम कथा का विशेष महत्व है. लोकसाहित्य हमें इस रामकथा को समझने का एक अलग दृष्टिकोण देता है. आज लोकसाहित्य एक विज्ञान के रूप में उन्नत समाज विज्ञानों में स्थान पा चुका है. जो मानव मन की तमाम जिज्ञासाओं तथा प्रश्नों की व्याख्या करने में समर्थ है. इस रूप में लोकसाहित्य रामकथा के विकास को समझने तथा उसे व्याख्यायित करने में समर्थ सिद्ध होता है.

संदर्भ ग्रन्थ सूची :

  1. हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ. नगेंद्र, पृ. 182
  2. हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ. नगेंद्र, पृ. 180
  3. मिथक से आधुनिकता तक – रमेशकुंतल मेघ, पृ. 7
  4. मिथक से आधुनिकता तक – रमेशकुंतल मेघ, पृ. 8
  5. हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ. नगेंद्र, पृ. 186
  6. हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ. नगेंद्र, पृ. 189
  7. रामचरितमानस – सटीक, मझला साइज़, पृ. 163
  8. चरित्रकोश- चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा, संपादक श्री नारायण चतुर्वेदी, पृ. 2061.
  9. रामचरितमानस – संपूर्ण आठों काण्ड – भाषा टीका सहित, पृ. 1004
  10. रामचरितमानस – संपूर्ण आठों काण्ड – भाषा टीका सहित, पृ. 1007
  11. बाल्मीकि रामायण, सप्तनवतितम: सर्ग: (सीता कर्तृकं शपथग्रहण रसातले प्रवेशनं च.) पृ. 728
  12. श्लोक 12, पृ. 74
  13. श्लोक 27, पृ. 128
  14. श्लोक 66, 14वां सर्ग, पृ. 229
  15. रामचरितमानस – संपूर्ण आठों काण्ड – भाषा टीका सहित, पृ. 1027
  16. बाल्मीकि रामायण, सप्तनवतितम: सर्ग: (सीता कर्तृकं शपथग्रहण रसातले प्रवेशनं च.) पृ. 729

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डॉ. अनीता शुक्ला
असि. प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय बड़ौदा

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