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शोधपत्रका विषय : रश्मिरथी और सूर्यपूत्रका मिथकीय परिप्रेक्ष्यमें तुलनात्मक अध्ययन


हिन्दी साहित्यमें मिथक शब्दका प्रयोग अंग्रेजी के मिथ शब्द MYTH के समानार्थी शब्द के रूपमें प्रस्तुत होता है। पाश्चात्य काव्यशास्त्रमें MYTH शब्दका प्रयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। तब ईस शब्द को कथा या देव कथा का पर्याय माना जाता था। पर कालान्तरमें इसका अर्थ विकास होने से विविध अध्ययन के क्षेत्रो में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करता गया। हिन्दी साहित्यिक समीक्षामें प्रयुक्त मिथक शब्द देव-कथा, पुराण-कथा, कल्प-कथा, पूरा-कथा, धर्म-गाथा, पुराख्यान तत्व, आदि रूपमें प्रयुक्त किया जा रहा है। ये सभी शब्द आंग्लभाषा शब्द मिथ के पक्ष, अति मानविय, अलौकिक या दैविक पक्ष को प्रकाशित करते है अंग्रेजी हिन्दी कोशमें हिन्दी समानार्थी शब्द मिथक के रूप में स्वीकार किया गया है। आज हिन्दी साहित्यिक विवेचनमें मिथके पर्यायवाच शब्द मिथक ही सर्वाधिक प्रचलित शब्द है।

आधुनिक जीवनकी संवेदनाओं मिथकीय स्तर पर व्यक्त करनेमें महाभारत के कथा प्रसंगोने प्रभावशाली भुमिका निभायी है। यह आकस्मिक घटना नहीं है कि वर्तमान समाज की जटीलताओं के मध्य रामायणकी अपेक्षा महाभारत के पात्र हमारी संवेदना के अधिक नजदीक आ गये। महाभारत कालीन ढोंचे में कर्णका चरित्र केन्द्रीय महत्व की अपेक्षा सामाजिक महत्व का अधिक होते हुए भी एक सामाजिक शक्ति की ओर संकेत करता था। इसकी मान्यताओं को इस युगमें स्विकृति नहीं मिल पाती क्योंकि महाभारत का लक्ष्य कृष्णकी राजनैतिक रणकुशलता ही दार्शनिक करण करता था। मान्यताओंकी टकराहट जीवन युध्धमें साधनागत मूल्यों की शुध्धता और अशुध्दता को लेकर थी। कर्ण दुर्योधन के पक्ष से लडा किन्तु वह अपने साध्य की ओर बढने के लिए साधनों की शुध्धता परा भी उतना ही बल देता था अन्यथा वह अर्जुन नाश करने के लिए सर्प अश्वसेन का उपयोग कर लेता। वह मानवजातिका प्रतीक था इसलिए सांपो से मिलकर लडना वह नीचता समझता था। कृष्ण पांडवो के पक्षमें रहे। साध्यकी ओर बढने के लिए उन्होंने साधनोंकी शुध्धता-अशुध्धता के सवालों को गौण माना। इनके लिए मुख्य चिंता थी कि यह युध्ध व्यापक जीवन मुल्यों को स्थापित करने के लिए असतपक्ष के विरुध्ध सत पक्ष में लडा जा रहा है। अत: इसके किसी भी तरह विजय हासिल की जाये चूकि यह विजय धर्मकी होगी इसलिए कोई बुरा प्रभाव नहीं पडेगा। स्पष्ट है कि महाभारतकार के कृष्ण के पक्षमें था। अत: कर्णकी मान्यताओं की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती थी।

कर्ण के जिवनमें आये उतार चढाव का चित्र महभारत ने खीचा। उसने कुल जाति हीन व्यक्ति के गुणों का दुराग्रह मुक्त होकर वर्णन किया। उसके पौरूष के राजनैतिक महत्व को भी उभारा। महाभारतकार कही दीन और त्रस्त नहीं दिखलाया बल्कि उसकी विरता एवं दानशीलताकी प्रशंसाकी। कृष्ण को भी कहना पडा,

त्वमेव कर्ण जानासिवेदवादान सनातनम ।
त्वमेव धर्मशास्त्रेशु सुक्ष्मेषु परिनिष्ठत: ॥

फिरभी वेदव्यास कथा-संयोजनके एक ऐसे दार्शनिक फलक से अनुप्रेरित थे कि कर्ण की सामाजिक शक्ति की सही व्याख्या न हो सकी और उससे जुडे कथा प्रसंगोंको संवेदनात्मक आधार ही मिल सका। कर्ण के मानसिक अत:दून्दू की अभिव्यक्ति बिलकूल नहीं हो सकी। महाभारतकारन कौरव पक्षमें शामिल होने कारण उसे मुख्यत: असत के पक्षधर के रूप में ही चित्रित किया। जिसकी वजह से उसके निजीआंतरिका गुणों की छबी मलिन हो गयी।

कर्ण को रश्मिरथी में नया मानववादी व्यक्तित्व मिल गया। राष्ट्रीय अतित के प्रति आत्मलुब्ध चिंतन द्रष्टि का भी कमाल था कि कर्ण जानि प्रथा के साथ पश्चिम की उपयोगितावादी वैज्ञानिकता के खिलाफ लडाई लडा रहा था। उसका जीवन महाभारत युध्ध के सिमित उदेश्यों तक अवरूध्ध नहीं था। दिनकरने एक स्थान पर लिखा हैं भारत की एक विशेषता यह हैं कि वह लडाई समस्त संसारकी लडाई अकेला दिनकर का रश्मिरथी अगर वर्तमानक विरूध्ध अतीत की लडाई लडनेवाला काव्य नायक है तो यह कृति की असफलता है। किन्तु संतोष की बात है कि कवि दिनकर ने रश्मिरथी कर्ण को महाभारत के समाज के स्थान पर समकालीन समाज के संघर्षों में नियोजित करके देखा है और उनकी व्याख्या नवोदित मानवीय सामाजिक ताकतों के परिपक्ष्य में की है।

रश्मिरथी उसी युग की रचना है जब नयी कविताने अपनी दुर्द्रभी बजानी शरू की थी और दिनकरको उसको अगुआ बनने के स्थान पर उसका पिछलगुआ बनना श्रेयस्कर लगा था।
सूर्यपुत्र इसलिए महान कहे जाने वालोंके अत्याचार से पिडित लघुमानवका ऐसा रूप था जो अपने व्यक्तित्व को सार्थक करने की दिशा में अंतत: महानों के बीच महानतम हो गया दिनकरने कर्ण के भाववादि द्रष्टिकोण के स्थान पर वस्तुवादी धरातल से जोडनेका प्रयास किया है। इसके कारण कर्ण की अंतपीडा जीतनी बढती है वर्ग एवं जाति विशमता से ग्रस्त समाजका मुखौटा उतनी ही तेजी से उधरता जाता है।

रश्मिरथी का कर्ण दुर्योधन के असत मूलादर्शों में आस्था रखता है। इस कृति ने द्रोंपदी के चीरहरण की घटना पर उसका यह पश्चाताप भी वर्णित है, जो महाभारत की कथा से भिन्न-भिन्न कवि की सच्ची काल्पनिकता का परीणाम है। दिनकरका लक्ष्य कर्णा के स्वतंत्र व्यक्तित्वकी रक्षा करना था। सभी जानते है कि दुर्योधन से उसने उस हालत में मैत्री की थी जब पाण्डवों के अहंकारने कुल जाति के सवाल पर उसे लांछित किया था। दुर्योधनने ही उस अंगदेश का राजा बनाकर उसे राजनैतिक प्रतिष्ठा दी थी। कर्ण जिस अवसर पर दुर्योधन का मित्र बना, उस समय पाण्डवों का चरित्र भी कम अधिक दुर्योधन के विलासी चरीत्र के समान ही था। जुए में पाण्डवों की पराजय के बाद कृष्णने उनमें आत्म संशोधनकी प्रक्रिया तिव्र की। सहधूप धाम पानी पत्थर पाण्डव आपे कुछ अधिक निखर, निर्वासनने ही कदाचित पाण्डवों के प्रति जनताकी धारणा अच्छी कर दी। तब तक दुर्योधन के शिबिर में बहुत गहरे प्रवेश करा चुका था। किन्तु मुख्य बात यह है कि कर्ण उन सामाजिक मान्यताओं के विरुध्ध था। जिनकी जड में जन्मे पाण्डव सुखं एवं राजपदों का भोग सिर्फ इस कारण कारण कर्नाचाह रहे थी कि वे विवाहित कुन्ति के पुत्र है। कर्ण साम्राज्य का लोभी नहीं, धन को वो धूल की तरह समझता है। वह भावनात्मक उदात्तता के उसके जन्मकी कथा युधिष्ठिर से ना कहे, अन्यथा वह अपना राज्य उसे सोंप देंगे और खुद इस दुर्योधनको दे देगा। उसके मनमें युधिष्ठिरके प्रति आदरभाव है क्योंकि वह अर्जुन से कमजोर है। कर्ण मजबुती से लडना चाहता है। वह अर्जुन का विरोधी है। संकटकी घडी में दुर्योधन का साथ छोडना कर्ण के व्यक्तित्व में दरार पैदा करता। फिर वह कर्ण कर्ण नहि होता यह उसका आत्मघातक दल बदल होता।
कृष्ण कर्ण को कुरू राज्य समर्पण का वचन दे देते है पर युध्ध के पहले वह उसके सामान्य सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए भी सचेष्ट नहीं होते क्यों? कर्ण बार-बार नियति से छला गया है और यहॉं भी एक छल था। वह कहता भी है।

मा का पय भी ना पीयामैंने उल्टे अभिशाप लिया मैं ने,
वह तो यशस्विनी बनी रही सबके भी मुझ पर तनी रही,
कन्या बढ रही अपरिणीता जो कुछ बीत मुझ पर बीता।

दिनकरने कर्ण की कारणिक दशा दिखलायी है। कर्ण उस माताको नागिन के समान मानता है, जो शिशु को दस मास तक सेवती है, अपने अंतर का रूधिर पिलाति है और जनने के बाद फेंक आती है। यह त्रासदी आधुनिक समाजकी भी है। अत: कृष्ण की राजनैतिक चालाकिसे भ्रमित ना होकर, कुन्ती की कोमल मातृवत्सला मैं ना बहकर एवं किसी तरह के लोभ में दल बदल ना करके कर्ण ने अपने व्यक्तित्व की अखंडता कायम रखी।

दिनकरने कौरव पांण्डव युध्ध को सिर्फ कर्ण-पार्थ के रण में बदलकर ‘महाभारत’के कथा परिद्रश्य में मौलिक परिवर्तन कर दिया, ताकि पुरी लडाई एक भिन्न संदर्भो में सामाजिक मान्यताओं और मूल्यों का द्वन्द बन जाये। इस दूंन्दू में कर्ण सत्पक्ष पर खडा था और बाकी संसार दंभ झूठ और छल पर टिका हुआ था। यहॉं कर्ण की दान शीलता का नाजायज फायदा उठाकर इन्द्रने उससे कवच कुण्डल हथिया लिये कर्णने इस तरह दानवीरता का अनुपम उदाहरण उपस्थित किया या अपनी पराजय का मार्ग खोल दिया।

जगदीश चतुर्वेदी सी पूर्व अनेक कवियोंने कुन्ती को उसके कौमार्य की ना समजी देंन को त्यागने के कारण ना जाने किन-किन चिशेषणों से संयुक्त करते हुए खरीखोटी सुनाई है। किसीने भी व्यक्तिके मानसिक स्तर की तहतक जानेका प्रयासा नही किया। पहली बार चतुर्वेदीने इस चरित्र के साथ न्याय किया है। उन के मनकी व्यथा को वाणी दी है। कुन्ती का कथन,

सह सकती हूं तमाम आपदाएं – क्या सूर्य,
अपने अनंन्तमें वैभव में से
मुझे अपनी किसी वृध्ध परिचारिका
सीलना भरा प्रकोष्ठ भी सर ढिकने के लिए बहीं दे सकते।

और युग के त्याग के समय की उसकी व्यथा, ममतामयी मॉं की व्यग्रता निश्चय ही स्नेह विहवल मों नी उदभासित करने में समर्थ होकर अभिव्यक्त होती है। आज प्रेम और समर्पण का जिस रूप में समझा जाता है जहॉं स्त्री और पुरूष दोनो का समान सहयोग अपेक्षित है। इस सहज रूप में चित्रित करते हुए कुन्ती को आधुनिक नारीके रूपमें प्रतिष्ठित कराया है। यौवन अपने पूर्ण विकास में एक उफगती हुई नदी के समान होता है और अपनी परिपक्वास्था में समर्पण की स्थिति को नकार नहीं जा सकता है। जगदीश चतुर्वेदीने इस अन्तर सम्बन्ध को मनोविश्लेशाणात्मक द्रष्टि से एक मूल्य स्तर देने का प्रयास किया है जो हमें स्वाभाविक लग रहा है।

मेरी द्रष्टि में इस मिथकिय पात्र के जीवन से कुछ ऐसे शाश्वत मानवीय संदर्भ जुडे हुए है जिनमें आज के मानव को भी अपनी आवाज सुनाई देती है। इसलिए जहॉं कहे भी बार-बार दुहरायी जानेपर भी कर्ण की गाथा पुरानी नहीं पडती। वह आज भी हम सब पाठकों की चेतना का कुरेदती है, कचुटती है और सचिन्त बना जाती है।

सूर्य पुत्र में वर्णित कर्णकी जीवन संघर्ष को कुछ देख आये तो सर्वस्व दानीके रूपमें दिखाया कर्णकी एसा उदार दुर्बलता का लाभ उठाकर ईन्द्र उसके पास याचक के वेष में आते हैं और कर्णसे उसके कवच थथा कुण्डल मांगते है। विश्रृतदानी कर्ण जानते पहचानते हुए भी अपनी अपराजेय शक्ति के प्रतिक कवच व कुण्डल दे देते है और इन्द्र से केवल एकबार जिसका प्रयोग किया जा सकता है ऐसी एकध्नी अमोघ शक्ति प्राप्त करते है।शक्ति संघन सर्गमें समस्त पाण्डव सेना के लिए कालरात्रि स्वरूप कर्ण भयंकर रण तांण्डव को देखकर कृष्ण अपने मित्र अर्जुन के लिए चिन्तित हो उठते है। कर्ण के पास अमोघ शक्ति के होते हुए अर्जुन के प्राणों का कैसे बचाया जाय? इसा प्रश्न को कृष्ण सुलजाने के लिए घटोत्कच को युध्धमें भेजतेहै और कर्णा का अमोघ शक्ति के प्रयोग करने पर विविश कर देते है। अमोघ शक्तिका मनचित प्रयोग न कर पाने की विवशता कर्ण को सलाती है। निर्वरण सर्ग में पहले ओज का अवसान दिखाया गया है फिर कर्ण की सेनापति पद पर नियुक्ति विधि की विडम्बना यहॉं कर्ण के साथ रहती है उस निरन्तर हतोत्साह करनेवाले श्वलयका सारथित्व प्राप्त होता है।

युध्ध समस्या पर भी कवि ने छिटपुट टिप्पणियां की हैं अन्तिम सर्ग में कर्ण वधा से शोकतुल युधिष्ठिर महाभारत के इस महासमरका कारण कुन्ती की चुप्पी को मानते है उसी रहस्य गोप एक ऐतिहासिक दुर्घटना का जन्म दिया। युधिष्ठिर कुन्ती के बहाने सारी नारी जातिको शाप देते है।

आज से ना गुप्त रख पायेगी नारीयॉं
छिपा ना सकेगी कोई भयावह रहस्य अन्तर में।

युधिष्ठिरकी शाप देने की यह मुद्र युगीन संवेदना को ग्राह्य होगी, इसमें संदेह है। अत: जहां कही भी कर्ण को अपनी श्रेष्ठता दिखलानेका अवसर मिला है वहां अर्जुन, द्रौपदी, भीष्म के द्वारा या कृपाचार्य के द्वारा जाति, कुल गौत्र के अज्ञान होने के कारण प्रताडित होते रहने के लिए छोडा दिया गया है फिर चाहे शस्त्र परीक्षा हो या द्रौपदी स्वयंवर या युध्ध के सेनापति पा दायित्व वह आत्मप्रवंचना को सहता हुआ के कडवे विषैले घुट पिता है। इस प्रकार अनायासही कर्ण आज के सामान्य जाति की कोटिमें उभरता हुअ युग-युग से उपेक्षित और प्रताडित मानवता का प्रतीक पात्र बनकर प्रस्तुत हो गया है।

निष्कर्ष :-

अत: रश्मिरथी और सूर्यपुत्र के कर्ण के मिथकीय व्यक्तित्व पर द्विवेदीयुगीन आदर्श, छायावादी काल्पनिकता एवं नयी कवीता के मानववाद का मिश्र दबाव दीखता है। कुरूक्षेत्र के बाद आने वाला रश्मिरथि प्रबन्धक सच्चे अर्थों में केवल महाकाव्यकी नहीं बालक कवि की दार्शनिक, सांस्कृतिक, कवित्वमय धर्म सम्बन्धी और रचनात्मक चेतना के सबल और सतर्क प्रमाण में है वह अकेला काव्य ही कवि की सम्पूर्ण चेतना और शक्तिका प्रतिक कहा जा सकता है। कवि का जो जिवन दर्शन हुंकार से जग और जिसकी पूर्णता परशुराम की प्रतीक्षामें हुई उसी का केन्द्र यह रश्मिरथी है।

REFERENCES :

  1. स्वांतंत्र्योत्तर हिन्दी महाकाव्य .......पृ. ३४
  2. रश्मिरथी पंचम सर्ग .......पृ. ७०
  3. रश्मिरथि चतुर्थ सर्ग .......पृ. ६०
  4. हिन्दी नई कविता मिथक काव्य .......पृ. १५१
  5. सूर्यपुत्र युगान्त सर्ग .......पृ. ११६

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डॉ. मानसिंहभाई एम. चौधरी
एम. एम. चौधरी आर्टस कोलेज,
राजेन्द्रनगर, जि. साबरकांठा
गुजरात

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