मैत्रेयी पुष्पा रचित ‘चाक’ की सारंग नैनी
३० नवम्बर, १९४४ के दिन सिकुर्रा गाँव(जि. अलीगढ़) में जन्मी मैत्रेयी पुष्पा आधुनिक महिला उपन्यास्करों में एक चर्चित नाम हैं I। ‘अल्मा कबूतरी’ एवं ‘चाक’ के ज़रिये अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करनेवाली मैत्रेयी पुष्पा जी ने यूँ तो अपने उपन्यास-साहित्य की यात्रा का आरम्भ ‘स्मृति-दंश’ नामक उपन्यास से किया, किन्तु उपन्यासिका के आकार की यह कृति पाठकों एवं समालोचकों का ध्यान आकृष्ट करने में असफल रही । पर ‘चाक’ नामक अपने उपन्यास में मैत्रेयी पुष्पा सामंती विचारधारा में नारी की दयनीय स्थिति और टकराहट को लेकर जब उपस्थित होती है, तो पाठक एवं समालोचक उनकी कलम की सराहना किये बगै़र नहीं रह पाये । ‘चाक’ का प्रारंभ हृदय-विदारक दृश्य से होता है – “काश यह मौत होती !
मगर यह हत्या ! पतित स्त्री, गर्भिणी औरत की हत्या !!” १ नायिका सारंग नैनी की फूफेरी बहन रेशम को उसके जेठ द्वारा मौत के घाट उतार दी जाती है । ये कोई एकमात्र घटना नहीं थी । अपितु – “इस गाँव के इतिहास में दर्ज दास्तानें बोलती हैं – रस्सी के फंदे पर झूलती रुकमणी, कुएँ में कूदनेवाली रामदेई, करबन नदी में समाधिस्थ नारायणी.....ये बेबस औरतें सीता मइया की तरह ‘भूमि-प्रवेश’ कर अपने शील-सतीत्व की खातिर कुरबान हो गईं । ये ही नहीं, और न जाने कितनी.....”२ सामंतीय विचारधारा व पुरुष-प्रधान समाज में नारी की दयनीय स्थिति को अभिव्यक्ति प्रदान करनेवाली मैत्रेयी पुष्पा अपने अविस्मरणीय नारी चरित्र सारंग नैनी को लेकर यहाँ उपस्थित हुई है । सारंग नैनी विद्रोही तेवर रखनेवाली आधुनिक युवती है । गुरुकुल में अनुशासन भंग करने और लड़कियों को सिखाने के जुर्म में निकाल दी गई सारंग स्वाभिमानी, संवेदनशील, ममतामयी, सहृदयी, भावुक एवं नीड़र है । रेशम की हत्या करने वाले उसके जेठ आदि को सज़ा करवाने के लिए वह तड़प उठती है । पर ग्रामीण समाज में परम्परागत रूढ़ियों में जकड़ी औरत को भला कौन साथ दे ! वह चीत्कार कर उठती है । उसके मन में धधकते लावा की तरह प्रश्न उठता है – “ये पुरुष-महापुरुष शाबाशी के पात्र हैं या धिक्कार के ? इनकी लाज-लिहाज हम क्यों करते हैं ? हम सारी अवस्था शीश झुकाकर काट देते हैं इनके सम्मान में, क्यों ? आज मुझसे भी कोई उत्तर नहीं बन पा रहा, तो ये भी क्या बताएँगे कि ये लोग हमारी हत्याओं के गवाह नहीं, तमाशबीन बनकर क्यों रह जाते हैं ? अन्याय के नाम पर ये गूँगे हो जानेवाले हमारे संरक्षक....”३ अत्याचार के समय सींग हिलाकर विरोध प्रदर्शित करनेवाले पशुओं से भी गए-बीते पुरुष-प्रधान समाज में उसकी चीख को सुननेवाला कोई नहीं था । आख़िरकार जैसे-तैसे, रो-धोकर के वह अपने पति रंजीत को तैयार कर पुलिस में रिपॅार्ट दर्ज कराती है पर कातिल को सज़ा दिलाने में, भ्रष्ट व्यवस्था की वज़ह से, नाकाम रहती है । “सारंग, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ, अब तो हमें माफ़ कर दो । मैं कायर हूँ, डरपोक हूँ, हिम्मतवाला हूँ, या लड़ाकूं हूँ ? मुझे कुछ याद नहीं । मेरे बच्चे पर रहम खाओ - सारंग । अपनी बहन पर चन्दन को निछावर मत करो ।”४ अंततः चन्दन को शहर में अपने चाचा (रंजीत के बडे़ भाई) के साथ भेज दिया जाता है । भावुक, ममतामयी सारंग का दिल पुता-वियोग में टूट जाता है । एक तो बहन के कातिल का यूँ आज़ाद घूमना और ऊपर से बेटे को अपने से अलग करना ! कैसे बर्दाश्त कर सकती ? रात-रातभर रोते रहने से सारंग मुरझा जाती है । दूसरी ओर रंजीत भी शायद कुछ न कर पाने की विवशता एवं बेकारी से चिड़चिडा हो जाता है । सारंग दिन-रात डोरिया से बदला लेने का और अपने बेटे को घर वापस लाने का खयाल मन में भरे रहती । कभी-कभी रंजीत से लड़ भी पड़ती । स्वप्नों में चन्दन का मासूम चेहरा उसकी आँखों के आगे से हटता नहीं था । वह सोचा करती –“मैं दुश्मनों को दिखा दूंगी की मेरा बीटा कायर नहीं । मेरी कोख से जनमनेवाला दशहरे की पूजा में हथियार सँभालेगा । हम क्षत्रिय हैं । जाती-पाँति नहीं होती, आदमी का कर्म क्षत्रिय होता हैं ।”५ बेटे के विरह में व्यथित सारंग गाँव की स्कूल में नये आये मास्टर श्रीधर से बहुत प्रभावित होती है और धीरे-धीरे उसके करीब जाने लगती है । गाँव में लोग तरह-तरह से बातें फैलाना शुरू कर देते हैं । रंजीत भी लोगों की बातों को सच मान कर कभी-कभी लड़ाई-झगड़ा करने लगता है । वह कहता है – “.....औरत को किसी मर्द से एकांत में मिलना, मौका देखकर बुलाना, और यदि खुशामद करनेवाला आदमी हुआ तो.....पतिव्रत धर्म की ऐसी की तैसी ! देह, देह का ताप दूर से ही खींच लेती है ।”६ रंजीत का यही तेवर उसे श्रीधर के और करीब ले जाता है । बेटे के वियोग में पीड़ित मातृवत्सल सारंग को स्नेह, प्यार की अत्यधिक आवश्यकता थी । संतप्त हृदय को शांति देने की बजाय रंजीत उससे खफ़ा रहने लगता है और वह भी धीरे-धीरे रंजीत से दूर होने लगती है । दोनों के बीच की ये मानसिक दूरी सारंग को श्रीधरमय बना देती है और न जाने कब वह श्रीधर से प्यार कर बैठती है । गाँव के प्रधानजी के बहकावे में आकर रंजीत श्रीधर पर हमला करता है । अनजान सारंग श्रीधर को लेकर चार-चार दिन अस्पताल में रहती हैं, उसकी सेवा करती है । रंजीत-श्रीधर में भटक रहे उसके मन की स्थिति को समझ उसके ससुर उसे कहते हैं-“मास्टर से तू प्रेम के कारन बँधी है तो रंजीत से मोह के जरिये । मोह को काटने के लाख जतन करते हैं हम, कटता है क्या ?”७ गाँव में चुनाव के दिन आ रहे हैं । प्रधानजी रंजीत को उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं । दूसरी ओर श्रीधर, भँवर आदि सुधारक चाहते हैं कि सारंग चुनाव लड़ें । श्रीधर-भँवर समझाते हैं सारंग को, पर वह कहती है – “हठी मत कहो मुझे । तुम्हारे राजधर्म - नारीधर्म हमारे काम के नहीं । मैं रंजीत को दुख नहीं देना चाहती, यह पतिधर्म नहीं, इनसानी धर्म है- मानव धर्म । कुछ धर्म ऐसे ही होते हैं, तुम्हारे विचार से बेड़ियाँ, हमारे चलते सुख-शांति । इतना समझ लो कि ढीली बेडी़ ही पाँव ज्यादा कटती है । मैं अपने घर इसी हैसियत से रह सकती हूँ, बस । ज्यादा कुछ करूँगी तो घर की बहू होने का हक भी छीन लिया जाएगा ।”९ लेकिन अंततः उसे पर्चा भरना ही पड़ता है । रंजीत खुद पर्चा नहीं भर पाता और उधर सारंग सामाजिक नियमों को तोड़ती जा रही हैं । अतः रंजीत के सिर खून सवार हो जाता है । पर सारंग ऐसे वक्त में तो और भी ज्यादा निर्भय हो जाया करती है । बौखलाया रंजीत चन्दन को वापस अपने भाई के यहाँ शहर भेज देना चाहता है । सारंग दोबारा अपने बेटे से बिछड़ना नहीं चाहती । वह विरोध करती है तो रंजीत चन्दन को मारने-पीटने लगता है । यह देख सारंग बेटे के लिए उग्र चंडी बन जाती है और बन्दूक उतारकर गोली चलाते हुए चिंघाड़ती है – “असल मर्द है तो छू चन्दन को ! छू ?”१० बाद में सारंग को चुनाव से नाम वापस लेने डराया-धमकाया जाता है, रुपयों-पैसों का प्रलोभन भी दिया जाता है । रामराज की बात रंजीत करता है तो वह कहती है- “रामराज्य लेकर हम क्या करेंगे ? सीता की कथा सुनी तो है । धरती में ही समा जाना है तो यह जद्दोजहद ? अपने चलते कोई अन्याय न हो ! जान की कीमत देकर इतनी सी बात, छोटा सा संकल्प करके निभाने की इच्छा है, बस ।”११ किसी भी तरह से सारंग को पर्चा वापस न करते देख आख़िरकार गाँव के प्रधानजी एवं अन्य पुरुष मिलकर सारंग को हराने मुठ्ठी खोल लोगों को बहलाने-बहकाने लगते हैं । सारंग मन ही मन प्रार्थना करते हुए कहती है – “ओ धरती माता !..... ओ दुरगे भवानी....बेटियों का खून स्वादिष्ट है, सो पीती है डायन की तरह....कि हमारे ही खून से पोषती है अपने बेटों को ? हम पूज-पूज हारे, असीस में मिला प्राणहंता श्राप ।....तो हमारे मरने-फुँकने और सुलगने पर तू मौन और धुआँधुआँ बस ! क्यों नहीं डोल उठती कि प्रलय हो जाय । क्यों नहीं फट जाती कि यह दुनिया समा जाय ।”१२ यहाँ सिर्फ़ सारंग की ही नहीं, बल्कि समस्त नारियों की व्यथा-कथा प्रस्फुटित हो रही है । उपन्यास के अंत में रंजीत का भी मोहभंग होता है और वह भटके हुए राही की तरह वापस घर सारंग के पास लौट आता है । इस प्रकार बचपन से ही विद्रोही तेवर रखने वाली सारंग नैनी सामाजिक सुधार एवं क्रान्ति की मशाल लिये खडी़ नज़र आती है । सारंग मैत्रेयी जी की एक अविस्मरणीय नायिका है । “ओ धरती माता !..... ओ दुरगे भवानी....बेटियों का खून स्वादिष्ट है, सो पीती है डायन की तरह....कि हमारे ही खून से पोषती है अपने बेटों को ? हम पूज-पूज हारे, असीस में मिला प्राणहंता श्राप ।....तो हमारे मरने-फुँकने और सुलगने पर तू मौन और धुआँधुआँ बस ! क्यों नहीं डोल उठती कि प्रलय हो जाय । क्यों नहीं फट जाती कि यह दुनिया समा जाय ।”१२ सन्दर्भ संकेत :-
REFERENCES :
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प्रा. रवीन्द्र अमीन |
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