कालिदास के नाटकों में वस्त्र-परिधान एवं प्रसाधन समाज भावनात्मक रूप से जुडे हुए जनसमुदाय की एक इकाई है, जिसमें वह जन्म से मृत्यु पर्यंत पलता-पोषता एवं जीता है । साहित्यकार भी उसी समाज का एक अंग है, संरक्षक तथा सजग प्रहरी है । वह समकालीन समाज को अत्यंत निकटता से देखता है । समाज की यथार्थ वस्तुस्थिति से रूबरू होता है । वह लोक का संजोता है तथा लोकजीवन के विविध पहलुओं को लेखनी के माध्यम से उजागर करता है । कालिदास भारतीय समाज एवं संस्कृति के सजग प्रहरी तथा प्रखर उद्गाता है । उनके नाटकों में समाज के विविध वर्ग के जनसमुदाय की जीवनशैली, परिधान तथा श्रुंगार के जो चित्र उल्लेखित है, वह विश्व के अन्य साहित्य में दुर्लभ है । कालिदास के नाटकों से ज्ञात होता है कि किसी भी सभ्य समाज की पहचान उसकी दैनंदिनी जीवन के आचरण, परिधान एवं श्रुंगार है । वेशभूषा जीवनशैली की अभिव्यक्ति की द्योतक है । कालिदासकालीन समाज में लोगों की वस्त्रों के प्रति सजागता प्रकट होती है । उनके नाटकों में वल्कल-वस्त्र, कौशेय-वस्त्र, दुकूल-वस्त्र, मृगचर्म, ऊनी-वस्त्र एवं उपानह जैसे परिधानों का उल्लेख हुआ है । कौशेय-वस्त्र संपन्न लोगों की सभ्यता का प्रतीक रहा है । मालविकाग्निमित्र नाटक में परिव्राजिका कौशिकी कौशेय-वस्त्र धारण करती है । वैवाहिक शुभ उत्सव के अवसर पर रमणीय वस्त्रों का परिधान किया जाता था । इस अवसर पर वधू कौशेय-वस्त्र धारण करती थी । पतिगृहप्रस्थानकाले सखिओं के द्वारा श्रुंगार करके नववधू की तरह सुशोभित शकुन्तला सफेद रेशमी वस्त्र धारण करती है । दुकूल वस्त्र शिर पर रखा जाता था. जिसे प्रायः शुभ मांगलिक अवसरों पर धारण किया जाता था. मालविकाग्निमित्र एवं विक्रमोवर्शीय नाटक में अनेकत्र ‘दुकूल’ शब्द का प्रयोग हुआ है । राजपुरुष भी अनुकूलता अनुरूप कौशेय एवं दुकूलादि वस्त्र धारण करते थे । तपोवन में रहने वालें तथा तापस जीवन व्यतीत करने वालें स्त्री एवं पुरुष वल्कल-वस्त्र धारण करते थे । अभिज्ञान शाकुन्तल में राजा दुष्यंत सारथी से कहता है कि हे सारथी ! विना जाने ही समज में आता है कि यह आश्रम की भूमि है – “स्तोयाधार पथास्ते वल्कलशिखा निष्यन्दरेखाङ्किताः ।” विक्रमोर्वशीय में पुरुरवा को भरतमुनि के शापवशाद वियोग उपस्थित होने पर विदुषक कहता है “महाराज वल्कल वस्त्र धारण करके तपस्यार्थ वन को प्रयाण करेगें ।” राजा मस्तक पर राजमुकुट धारण करते थे । उनके बेठने के लिए सिंहासन होते थे । राजपुरुष स्वयं की रक्षा के लिए कवच धारण करते थे । कालिदास के नाटकों में श्रुंगार प्रसाधन की सामग्री में पुष्पों का विशेष महत्त्व रहा है । नाटकों की नायिका स्वयं को पुष्पों से अलंकृत करती थी । शकुन्तला को भी पुष्पों से विशेष प्रेम था । पतिप्रस्थानकाले कण्वऋषिने शकुन्तला के श्रुंगार के लिए ऋषिकुमारों को लता वृक्षों से प्रसाधन-सामग्री लाने को कहा था । मालविका भी अशोकवृक्ष की शाखा पर अवस्थित पर्ण-गुच्छों को अपने कान का आभूषण बनाती है – “एषो अशोकशाखा वलम्बी पल्लवगुच्छ अवतंसेनम् ।” उर्वशी का नैसर्गिक सौन्दर्य मनमोहक था । पुष्पों की माला भी साज-सज्जा का प्रधान आभूषण था । तत्कालीन समाज में लम्बे बाल रखने की प्रथा थी । गूंथे हुए लम्बे बाल सौन्दर्य में वृद्धि करते थे । बाल्यकाल में बच्चों के छोटे बाल रखे जाते थे । स्त्रीयां केशों की वेणी बांधती थी । गूंथे हुए केश सुन्दरता के प्रतीक होते थे । विरहावस्था में स्त्री साज-सज्जा से दूर रहती थी, वह एक वेणी धारण करती थी । शरीर को स्वच्छ, स्वस्थ एवं सुडोल रखने के हेतु तैल का उपयोग होता था । अभिज्ञान शाकुन्तल में स्नान से पहले शरीर पर तैल के प्रयोग का उल्लेख है – “अभ्यत्कमिव स्नातः शुचिरशुचिमिव प्रबुद्ध इव सुप्तम् ।” शाकुन्तल नाटक में इंगुदी तैल का उल्लेख हुआ है । तपस्वी इंगुदी तैल को शिर पर लगाते थे । घाव को भरने के लिए औषधि के रूप में इस तैल का प्रयोग होता था । शकुन्तला मृग-शावक के मुख में कुश के अग्र भाग से हुए व्रण को दुरस्त करने हेतु इंगुदी का तैल लगाती है । चन्दन के प्रयोग का धार्मिक कार्यों में विशिष्ट महत्त्व था । ऋषिजन मस्तक पर चन्दन का लेप तथा विविध प्रकार के तिलक लगाते थे । स्त्रीयां श्रुंगार प्रसाधन के रूप में इसका उपयोग करती थी । शुभ अवसरों पर चन्दन का तिलक मांगलिक माना जाता था । शरीर के किसी भी भाग में चोट आने की स्थिति में तत्काल उपचार हेतु चंदन तो उपयुक्त माना जाता था । मालविकाग्निमित्र में राणी धारिणी के पैर में चोट आने पर रक्तचंदन का लेप किया गया था । चन्दन का लेप शरीर को सुगन्धित बनाने, शीतलता हेतु तथा सौन्दर्य में निखार लाने के लिए किया जाता था – “कस्येदमुशीरानुलेपनं मृणालवन्ति च नलिनी पत्राणी नियन्ते ।” कालिदास के नाटकों में दर्पण का उल्लेख भी हुआ है । श्रुंगार करने हेतु दर्पण का उपयोग किया जाता था । शाकुन्तल में मारीच ऋषि शकुन्तला को सम्बोधित करके कहते है – “छाया न मूर्च्छित मलोपहृतप्रसादे शुद्धं तु दर्पणतले सुलभावकाशा ।” स्वयं को सुन्दर बनाना तथा शरीर को सुन्दरता प्रदान करना अपने आप में एक कला है । इस कला में सभी लोग सिद्धहस्त नहीं होते । अभिज्ञान शाकुन्तल में प्रियंवदा श्रुंगारकला में निपुण है । वह शकुन्तला का श्रुंगार करते हुए कहती है – “आभरणोचितं रूपमाश्रमसुलभैः प्रसाधनैविप्रकार्यते ।” मालविका के चरणों में महावार लगाते समय बकुलावलिका से मालविका कहती है – “केन प्रसाधनकलायामभि विनितासि ।” मालविकाग्निमित्र में धारिणी कौशिकी से कहती है – “यस्त्वं प्रसाधनगर्व वहसि तद्दर्शय मालविकायाः शरीरे विवाह नेपथ्यमिति तया सविशेषलंकृतं मालविका ।” प्राचीनकाल में और भी ऐसे आभूषणों थे जिसके प्रति लगाव स्त्री-पुरुष दोनों में रहा है । ‘माला’ कंठ का आभूषण था । उर्वशी एकावली माला धारण करती थी । विक्रमोर्वशीय में हेमसूत्र का भी उल्लेख हुआ है । तत्कालीन समय में ‘वलय’ (सोने के कंकण) धारण करने की प्रथा थी । अभिज्ञान शाकुन्तल में दुष्यन्त ने कनक वलय धारण किया था । मालविकाग्निमित्र में मालविका ने शिथिल ‘कटक’ धारण किये हुए है । मुद्रिका सर्वाधिक प्रचलित आभूषण रहा है । अभिज्ञान शाकुन्तल की कथा का मुख्य आधार ही मुद्रिका है । दुष्यंत रत्नजडित मुद्रिका धारण करता था । जिसके पर राजा दुष्यंत का नाम मुद्रित था । “अरे कुम्भीलक, कथय कुत्र त्वयैतन्मणिबन्धनोत्कीर्ण नामधेय राजकीयमङ्गुलीयकं समासादितम् ।” ‘रशना’ आभूषण को कटीस्थान पर धारण किया जाता था । इसे काञ्ची नाम की मेखला के नाम से भी जाना जाता था । मालविकाग्निमित्र में रानी इरावती गुस्से में राजा को ‘राशना’ से प्रहार करती है । “इयमपि हताशा त्वामेवानुसरति । रशनामादाय राजानं ताडयितुं इच्छित ।” ‘नूपुर’ किंकणिका से युक्त होते थे । मालविका अशोकवृक्ष के दोहद विधि पर पादप्रहार करती है तब नूपुर की ध्वनि होती है । धारिणी ने भी नूपुर धारण किये हुए है । कालिदास नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के धनी थे । उनके नाटकों में प्रणयभंग अथवा प्रणयमिलन के पश्चात् उपस्थित हुए वियोग का मार्मिक वर्णन मिलता है । उनकी पात्रसृष्टि में स्त्री हो या पुरुष दोनों ही इस अवस्था में व्याकुल रहतें थें । विशेषतः स्त्रीपात्रों में श्रुंगार-प्रसाधन के प्रति अरुचि अभिव्यक्त होती है । इस अवस्था में मलिन वेश धारण करती है । कवि ने वियोग से व्यथित मन के पुरुषों का भी उल्लेख किया है । ऐसी अवस्था से ग्रस्त पुरुष अपनी प्रियतमा के चित्रों को आलेखित करते हुए दुःख के सागर में निमग्न दिखाई पडते है । कालिदास के नाटकों से फलित होता है कि तत्कालीन समय में तपस्वीयों की वेशभूषा, वैराग्य की वेशभूषा, अभिसारिका की वेशभूषा, जप-तप-दान एवं व्रतों के अवसरों पर धारण की जाने वाली वेशभूषा प्रायः भिन्न थी । इसी तरह द्वारपाल, पवनी (राजा की विशिष्ट सेविका), माछीमार, शिकारीयों एवं राजपुरुषों की वेशभूषा अलग हुआ करती थी । REFERENCES :
*************************************************** प्रि. डो. दिनेशचन्द्र डी. चौबीसा आदिवासी आर्ट्स एन्ड कोमर्स कोलेज, भिलोडा जि. साबरकांठा-383245, गुजरात |
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