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गीता और गुणस्थान सिद्धान्त


भूमिका- “किसी ग्रंथ का मनुष्य के मन पर कितना अधिकार है, उसे उस ग्रंथ की कसौटी समझा जाय तो कहना होगा कि गीता भारतीय विचारधारा में सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रंथ है”। - डॉ. राधाकृष्णन

गीता हिन्दू साहित्यक संस्कृति का एक प्रमुख ग्रन्थ है। यह समुच्चय है व्यक्तित्व, श्रद्धा, बुद्धि, कर्म, नैतिक आचरण एवं आत्म विशुद्धि के अवबोधन का। इसमें जीवन दृष्टि और आचरण के वे विश्लेषणात्मक आयाम निहित हैं जो सांसारिक जीव की स्थिति व गति का दिग्दर्शन कराते हैं। जीव के आध्यात्मिक अथवा आत्मिक उन्नति की मंजिल तीन पायदानों के आसपास जीव रहता है। वह वर्तमान में कहाँ पर है और उसका आत्म विशुद्धि पर क्या प्रभाव होता है इसका विवेचन गीता में मिलता है जिसे जैन दर्शन के गुणस्थान अभिगम में विश्लेषित किया है। गीता में वर्णित ये तीन चरण निम्नवत् रूप स्थिति को समझाते हैं- जीव शुद्धाचरण का ज्ञान ही न रखता हो, उसे अच्छे बुरे का ज्ञान तो हो किन्तु शुद्धाचरण में लीन न हो तथा अंतिम स्थिति जिसमें विशुद्ध ज्ञान व आचरण का धारक होकर आत्मिक अनुभूति की ओर बढ़ाता हो। गीता में सैद्धान्तिक तौर पर तमोगुण – रजोगुण - सत्वगुण तीन स्थितियों के माध्यम से संसारी जीव की आध्यात्मिक विकास की कसौटी का विधान किया गया है। ये तीनों स्थितियाँ विषय भोगों में आसक्ति, कर्म प्रधानता और नैतिक परिशुद्धता के रूप में त्रिगुण सिद्धान्त के रूप में मान्य हैं। इस अंतिम चरण के बाद समस्त गुण स्थितियों की शून्यता होने पर निजात्म या मोक्ष की प्राप्ति की अनुभूति होती है। डॉ. प्रमिला जैन ने अपनी प्रकाशित शोधकृति षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन(आध्यात्मिक विकासक्रम) (के पृष्ठ सं. 247-255 ) में गीता और गुणस्थान के तुलनात्मक विश्लेषण में स्पष्ट किया है कि गीता और आध्यात्मिक विकास की चार अवस्थाऐं.(गीता 2 । 43 । 44) हैं-

तमोगुण - रजोगुण - सत्व गुण - गुणातीत अवस्था।

गुणस्थान में वर्णित 14 स्थितियों की यदि इन उपर्युक्त तीन अवस्थाओं से तुलना करें तो यह कहा जा सकता है प्रथम, द्वितीय व तृतीय गुणस्थान (मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र) में तमो व रजो गुण अवस्थाऐं रहती हैं। चौथे से सातवें गुणस्थान (सम्यकत्व, देशविरत, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत) तक सत्व गुण अवस्था रहती है। गुणातीत अवस्था आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक हो सकती है।

  • (अ) तमोगुण - जो जीव की निष्क्रियता, जड़ता और अज्ञान का द्योतक है। तमोगुणी व्यक्ति के संदर्भ में गीता का कथन है- आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः नैष्कृतिकोलसः।विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।। 8। 28।।

    • (आ) यहाँ इस सूक्ति में वर्णित लक्षणों को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

      आयुक्त-जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं व श्रद्धान तथा आस्तिकता का अभाव है।
      प्राकृत- जिसे अपने कर्तव्य का कुछ ज्ञान नहीं है।
      स्तब्ध- जो धनादि का मद करने वाला है।
      शह- जो धूर्त हेयोपादेय, विवेकशून्य दूसरों की आजीविका हरने वाला है।
      आलस- जिसकी इन्द्रियों व अंतःकरण में आलस भरा हुआ है।
      विषादी – निराशा और चिन्ता में डूबा रहने वाला।
      दीर्घसूत्री- कार्यों को भविष्य पर टालने वाला, स्थगित करने वाला।

      गीता के महानायक भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए आगे कहते हैं- अधर्म धर्ममति या मन्ते तमसा वृता । सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिसा पार्थ तामसी ।। 18। 32 ।। इसका अर्थ है कि हे अर्जुन ! जिसकी बुद्धि अज्ञानमय अंधकार से भरी हुई है, अधर्म को धर्म मानकर सभी अर्थों को विपरीत देखती है या मानती है वह तामसी है।

      तामसी पकृति के लक्षण-
      तामसी पकृति के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि मोघाशा मोघाकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। राक्षसी मासुरी चैव प्रकृति मोहनी श्रिता ।।9।12।।

      इस सूक्ति का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है-
      मोघाशा- व्यर्थ की आशा करने वाले।
      मोघकार्माण- व्यर्थ के कार्य करने वाले अर्थात श्रद्धा रहित दान पूजा व तपश्चरण करने वाले।
      मोहज्ञान- तात्विक अर्थ से शून्य ज्ञान वाले।
      विचेतस-विक्षिप्त चित्त और विषय वासनाओं में रहने वाले ये सभी राक्षसी आसुरी और मोहनीय प्रकृति वाले जीव तामसी प्रकृति के धारक माने जाते हैं।

      तामसी प्रकृति का प्रभाव-
      तामसी प्रकृति का क्या प्रभाव होता है इसकी स्पष्टता निम्नलिखित सूत्र में मिलती है-एतां दुष्टिमउष्टभ्य नष्टात्मनोल्प बुद्धयः।प्रभवन्त्युग्रकर्मणः क्षयायः जगतो हिताः।।6।9।। अर्थात् मिथ्याज्ञान का आलम्बन करने वाले आसुरी प्रकृति वाले अपनी आत्मा को नष्ट करने वाले तथा क्रूर कार्य करने वाले समस्त व्यक्ति सारे लोक के लिए अहितकारक व सर्वनाश के निमित्त होते हैं।

  • (ब) रजो या राजसी गुण-
    भौतिकवादिता या भोग विलास की लालसा तृष्णा और इसकी प्राप्ति हेतु संघर्ष प्रेरित एवं अनिश्चय से भरी हुई जीवन की स्थिति। गीता के अध्याय 18 श्लोक 6 में भी इसी विचार की पुष्टि की गई है। राजसी गुणों को आगे निम्न श्लोकों के द्वारा समझाया गया है- रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मको शुचिः। हर्षशोकाविन्तः कार्य राजसःपरिकीर्णतः।।18।27।। इसका अर्थ इस प्रकार है- राज वासनाओं में राग रखने वाले को भी सदा अपने कर्म फल की आकांक्षा करने वाला हिंसात्मक प्रवृत्ति वाला अपवित्र सदा ही हर्ष- शोक से प्रभावित व्यक्ति राजसी प्रकृति वाले माने जाते हैं।

    राजसी प्रकृति के लक्षण-
    गीता में इन लक्षणओं को इस सूक्ति के माध्यम से स्पष्ट किया है- ध्यायतोविषयान्पुन्सः संग्स्तेषूपजायते।संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोमिजायते।। 2। 62।। क्रोधोद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति विभ्रमः।स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणस्यति।। 2। 63।। जिसका अर्थ है कि विषयध्यान परिग्रह में आसक्ति बढ़ाने वाले होते हैं। आसक्ति से काम, काम से क्रोध, क्रोध से सम्मोह तथा सम्मोह से स्मृति विभ्रम हो जाता है। स्मृति विभ्रम से बुद्धि नाश हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का नाश हो जाता है।

    राजसी प्रकृति की परिणति- गीता में राजसी प्रकृति की लाक्षणिकताओं का विस्तार करते हुए उसके प्रभावों को प्रक्षेपित कर निम्न सूक्ति के माध्यम से स्ष्टता की गई है- अज्ञश्चाश्रद्दघानश्च संशयात्मा विनश्यति।नायं लोकोस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। 4। 40।। जिसका अर्थ- है कि जिसमें सत्य-असत्य, आत्म-अनात्म तथा कर्तव्य-अकर्तव्य के मध्य विवेकपूर्ण निर्णय करने की शक्ति नहीं है अर्थात् जो अज्ञ है एवं जिसे पाप-पुण्य कर्मफल व स्वर्ग मोक्षादि में संशय है वे अश्रद्धालु हैं इन्हैं परमार्थभ्रष्ट माना जा सकता है। गुणस्थान के साथ तुलना की दृष्टि से राजसी व तामसी गुण मिथ्यात्व गुणस्थान में गर्भित माना जा सकते हैं।

  • (क) सत्त्वगुण-

    यह स्थिति आध्यात्मिक नैतिक आदर्श आचरणों को समाहित करते हुए जीवन के उच्चतम ध्येय की स्थिति में आधारभूत स्तम्भ की तरह है। इन गुणों से युत होकर जीव अपना आध्यात्मिक उत्थान का सच्चे सुख का अहसास करता है। यह गुण चरम परिणति की साधना का शुद्ध साधन है। सात्विक कर्ता व कर्म की व्याख्या करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्। अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तसात्विक मुच्चयते।। 18। 23।। अर्थात गृहस्थ या संन्यासी जो राग-द्वेष आसक्ति रहित होकर कर्म फल की आकांक्षा किए बिना अपने जिन नियत कर्तव्यों का निर्वाह करता है उन्हैं सात्विक कर्म या गुण कहा जाता है। जैन दर्शन के गुणस्थान अभिगम में ममत्व रहित निष्काम अणुव्रत व महाव्रत पालन की प्रक्रिया को चतुर्थ (उत्तरार्ध स्थिति) से सप्तम गुणस्थान तक दर्शाया गया है जो गीता में वर्णित सत्व अवस्था से मेल खाती है।

    टिप्पणी- 14 गुणस्थानों के अन्तर्गत आध्यात्मिक विकास की सूक्ष्मता व गहनता की दृष्टि से प्रत्येक गुणस्थान में तीन उप – भेद किए जा सकते हैं- गुणस्थान में प्रवेश के समय की आरम्भिक स्थिति जिसमें उस गुणस्थान का प्रभाव जीव पर कम प्रमाण में देखने को मिलता है, दूसरी मध्य स्थिति जिसमें जीव उस गुणस्थान के लक्षणों को अंगीकार करते हुए आगे बढ़ने लगता है तथा तृतीय उत्तरार्ध स्थिति जिसमें जीव उस गुणस्थान की चरमसीमा को स्पर्श कर लेता है।

    चतुर्थ सम्यकत्व गुणस्थान के समकक्ष गीता में कृष्ण अर्जुन संवाद के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है कि जो व्यक्ति योग या आत्म तत्व में श्रद्धा तो करता है किन्तु संयमी नहीं है उसकी गति क्या होगी ? अर्जुन की इस शंका के समाधान में श्री कृष्ण स्पष्टता करते हैं-अपि चेत्सुदुराचारी भजतेमामन्यभाक् ।साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।9 । 30।। अर्थात् एक असंयमी किन्तु मेरे में(आत्म में) श्रद्धान या भक्ति रखने वाले जीव को साधु ही मानना चाहिए क्योंकि उसका व्यवसाय या श्रद्धान सम्यक् है जो उसे एक न एक दिन मोक्ष मार्ग पर लगा कर रहेगा।

    सत्वगुण की अंतिम दशा और गुणस्थान- इसका अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है किजो समस्त कर्मों व बाह्याभ्यन्तर भोगों के प्रति आसक्ति न रखने वाला संन्यासी परमात्म प्राप्ति की योग्यता का धारक बन जाता है। जैन दर्शन में इस साघना पथ की तुलना छठे–सातवें गुणस्थान से की जा सकती है जहाँ से साधक उच्च गुणस्थानों में आरोहण करता है।

  • (द) जीव की करुणातीत व गुणातीत अवस्थाः-

    आध्यात्म उन्नति की सर्वोत्कृष्ट अवस्था को गीता में जीव की करुणातीत व गुणातीत अवस्था कहा गया है।जीव की त्रिगुणातीत अवस्था को निम्न श्लोकों से भी स्पष्ट किया गया है-समदुःख सुखः स्वस्थः समलोटाश्म काञ्चनः ।तुल्यप्रियप्रयो धीरस्तुल्यनिदात्म संसुतुतिः ।। 14 । 24।। मानापमान्योस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्चते ।। 14 । 25।। त्रैगुणयविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।2 । 45 ।। अर्थात् सुख-दुख लाभ हानि आदि द्वन्द्व रहित समभावी, नित्य-अविनाशी व सर्वज्ञता के प्रति अटलता रखने वाला सत्त्व गुणधारी है। कामवासना और सर्व- आरंभ-परिग्रह का त्याग निर्योग क्षेम है। यह स्थिति साधक को आत्मवान बनाती है जैन दर्शन के गुणस्थान अभिगम के अनुरूप ये सभी लक्षण सातवें गुणस्थान के समकक्ष माने जा सकते हैं। 13वें और 14वें गुणस्थान वर्णित समकक्ष स्थितियां और गीता-
    13वें और 14वें गुणस्थान के समकक्ष स्थितियां गीता के सर्व संकल्प त्याग प्रेरित इस श्लोक में मिलती हैं। यथा-.यदाहिनेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।सर्व संकल्प संन्यासी योगारूढस्तवोच्यते।। 6 । 4 ।। अर्थात् जो समस्त प्रकार की इन्द्रियासक्ति का त्याग कर चुका है और इस प्रकार के कर्म सम्पादन से रहित है ऐसा सर्व संकल्प त्यागी व्यक्ति योगारूढ़ होता है।

    आगे की उत्कृष्ट स्थिति को स्पष्ट करते हुए इस श्लोक में कहा गया है- जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा- समाहितः ।शीतोष्ण सुखदुःखेषु तथा मानायमानयो ।। 6 । 7 ।। अर्थात् जो आत्मा शीत-उष्ण, सुख-दुःख व मान-अपमान से पूर्णतः निर्विकार एवं प्रशान्तमान है वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा में दृढ़ता पूर्वक स्थित हो जाता है। इस ज्ञान में परमात्मा के सिवाय कुछ नहीं रहता।

    12वीं क्षपक श्रेणी क्षीण मोह गुणस्थान व सयोगी केवली साधक के समान स्थिति का दर्शन गीता के निम्न लिखित श्लोक में मिलता है।योगी पुंजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीर परिग्रह ।। 6 । 10 ।। युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियत मानसः । शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।। 6 । 15 ।। अर्थात् जिस योगी ने शरीर, मन व इन्द्रियादि को वश में कर लिया हो, एकान्त में स्थिर होकर निरन्तर परमात्म में रत हो। मुझमें स्थित ऐसा योगी अंत में परमात्मा की पराकाष्ठा रूप शान्ति को प्राप्त होता है।

समीक्षा-

उपरोक्त के तुलनात्मक विश्लेषण से स्पष्ट है कि दोनों दर्शनों में साधना प्राप्ति का मार्ग एक है-भक्ति, ज्ञान, कर्म और संन्यास स्वीकृत हैं, निष्काम व निरासक्ति पूर्ण हैं। यहाँ लक्ष्य की ओर बढ़ने की पहली शर्त है- सम्यग्श्रद्धा, सम्यग्दृष्टि पूर्ण सम्यक आचरण। यह मार्ग शाश्वत है, सनातन है जो न कभी किसी के लिए अवरुद्ध था न है और न ही होगा।

जैन दर्शन में वर्णितगुणस्थानों के साथ यदि गीता के त्रिगुण सिद्धान्त के साथ तुलना करें तो हम पाते हैं कि तमोगुण भूमि का जीव मिथ्यादृष्टि विशष्टताओं से यथेष्ट साम्य रखता है। तमोगुण धारक जीव यथार्थ ज्ञानाभाव के कारण योग्य कर्माचरण से परे रहता है। तमोगुण भूमि में मृत्यु प्राप्त प्राणी मूढ़ योनि (अधोगति) में जन्म लेता है। बौद्ध दर्शन में यह अन्धपृथग्जन भूमि के समान है।

दूसरी स्थिति तमोगुणधारी उन प्राणियों की है जो इसके उत्तरोत्तर काल में हैं अर्थात् जीवनदृष्टि और श्रद्धा तो तापस है किन्तु आचरण सात्विक नहीं है यथा- आर्तभाव या कामनादि के साथ भक्ति का आचरण। गीता में इन्हैं संस्कृति (सदाचारी) एवं उदार कहा गया है साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि ऐसा जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता। जैन दर्शन के गुणस्थान सिद्धान्त में यह अवस्था सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के निकटवर्ती मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाले प्राणियों जैसी है। बौद्ध दृष्टि से यह अवस्था कल्याण पृथग्जन या धर्मानुसरी भूमि है।

तीसरी स्थिति रजोगुण अभिमुख है। राजस का आशय है भोग विषयक चंचलता श्रद्धा एवं बुद्धि। बुद्धि की अस्थिरता एवं संशयपूर्णता आध्यात्मिक या यथार्थ आचरण से दूर बनाए रखती है तथा जीव स्थाई निर्णय लेने में असमर्थ होता है। गीता में अर्जुन के व्यक्तित्व में मूढ़ चेतना का प्रस्तुतीकरण देखने को मिलता है। अज्ञानी और अश्रद्धालु (मिथ्यादृष्टि तो विनाश को प्राप्त होते ही हैं। गीता के अनुसार संशयात्मा की दशा उससे भी बुरी बनती है वह तो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के सुखों से वंचित रहता है यह अवस्था जैन दर्शन के मिश्र गुणस्थान के समकक्ष है। जैन दर्शन की यह मान्यता है कि तृतीय मिश्र गुणस्थान में जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता जबकि गीता का मत है कि रजोगुण धारक जीव मृत्यु को प्राप्त होने पर आसक्ति प्रधान योनियों में भ्रमण करता हुआ जन्म- मरण करता रहता है।

चौथी स्थिति वह है जिसमें जीव का दृष्टिकोण तो सात्विक है किन्तु आचरण तामस और राजस। इसकी तुलना चतुर्थ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से की जा सकती है। नवमें अध्याय में इस श्रेणी के जीवों के संदर्भ में श्री कृष्ण कहते हैं कि दुराचारणात् (सुदुराचारी ) व्यक्ति जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं उनको भी सम्यग्ररूपेण साधु (सात्विक प्रकृति वाला) स्वीकार कर लेना चाहिए। बौद्ध विचारधारा में इसे स्रोतापन्न भूमि (निर्वाण मार्ग प्रवाह से पतित) कहा गया है। गीता और जैन दर्शन के अनुसार ऐसा साधक मुक्ति प्राप्ति की संभावना लिए रहता है।

आगे के आचरण को लेकर जैन दर्शन में कई उप-विभाग या गुणस्थान श्रेंणी हैं जबकि गीता में इस दृष्टि से गहन विश्लेषण नहीं है तथापि अर्जुन द्वारा कई शंकाओं एवं कृष्ण द्वारा उनके समाधान को लेकर छठे अध्याय में उल्लेख मिलता है कि जो व्यक्ति श्रद्धा युक्त (सम्यग्दृष्टि) होते हुए भी चंचल मन के चलते योग पूर्णता को प्राप्त नहीं करते उनकी क्या गति होती है ? इसके समाधान में श्री कृष्ण स्पष्टता करते हैं- चंचलता के चलते परम लक्ष्य को प्राप्त हुए साधु सम्यक श्रद्धा व आचरण युत कर्म के कारण ब्रह्म प्राप्ति की यथार्थ दिशा में रहता है क्रमशः आत्मा की ओर अग्रसर होने की संभावना बनी रहती है। जैन दर्शन में पाँचवे से ग्यारहवें गुणस्थान तक की जो स्थिति है उसकी तुलना इस अवस्था से की जा सकती है क्यों कि इस अवस्था में आत्म तत्व का दर्शन होता रहता है। धीरे-धीरे राजस भावों व आचरण से उसकी आसक्ति कम होती जाती है और सत्व गुणों की उपस्थिति बढ़ती जाती है। यह योग पूर्णता या मोक्ष जैसी स्थिति है। सत्व गुणों की अवस्था आदर्श नैतिक स्तर है। जैन दर्शन में इसे चरमादर्श विकास या 12वें गुणस्थान की दशा के साथ मापा जा सकता है। यहाँ साधक को कुछ करने को नहीं रह जाता। डॉ. राधाकृष्णन का कथन है कि सर्वोच्च आदर्श नैतिक स्तर से ऊपर उठकर जीव आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचता है। सात्विक अच्छाई भी अपूर्व है क्योंकि इस अच्छाई के लिए विरोधी के साथ संघर्ष की शर्त लगी रहती है। गीता के अनुसार त्रिगुणातीत अवस्था साधना की चरम परिणति एवं विकास की अंतिम कक्षा है। गुणातीत अवस्था को प्राप्त जीव इन गुणों से विचलित न होकर उनमें होने वाले परिवर्तनों को सम्यक् भाव से देखता है। गीता दर्शन के अनुसार ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि गुणातीत होकर आत्मा को ज्ञान गुण सम्यक् हो जाता है। जैन दर्शन में इसकी तुलना सयोग केवली नामक 13वें गुणस्थान से तथा बौद्ध दर्शन की अर्हत भूमि से की जा सकती है।

अंतिम अवस्था त्रिगुणात्मक देह मुक्ति की है जिसमें आत्मा वरण करता है परमात्म स्वरूप का। आठवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कहा है कि में तुझे उस परम पद अर्थात् प्राप्त करने योग्य स्थान को बताता हूँ जिसे विद्वानगण अक्षर या अक्षरपरमात्मा कहते हैं जिसमें वीतराग मुनि ब्रह्मचर्य के साथ प्रवेश करते हैं। योग चंचलता को रोक कर प्राणशक्ति को शीर्ष मूर्धा में स्थिर कर ओम के उच्चारण के साथ मेरे अर्थात् आत्म तत्व में विलीन हो जाते हैं। कालिदास ने भी योग द्वारा शरीर त्यागने का निर्देश दिया है। जैन दर्शन की अयोगकेवली नामक 14वें गुणस्थान की अवस्था से इसकी तुलना की जा सकती है। पहले अशुभ व चंचल वृत्ति से परे होना सम्यग्दृष्टि के साथ शुभ तत्पश्चात शुद्धाचरण में प्रवृत्त होकर आत्म विशुद्धि गुणातीत आत्मा इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग में सम रहकर सभी आरम्भ परिग्रहों से परे होकर योग बल से मन के व्यापारों का निरोध करती है।


उपसंहार-

अंत में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि गीता में गुणस्थानों की भाँति क्रमिक आध्यात्मिक विकास के सोपानों का व्यवस्थित स्वरूप में वर्णन नहीं है तथापि गीता के सार को संक्षेप में नियत गुणस्थान बिन्दुओं के आधार को निम्न रूप से भी स्पष्ट किया जा सकता है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान - यह तमोगुण प्रधान स्थिति है। सत्वगुण की आंशिकता भी तमो व रजोगुणाधीन रहती है।

सास्वादन - तमोगुण प्रधान है किंचित मात्रा में सत्वगुण का प्रकाश होता है जब तक आत्मा पतित होकर मिथ्यात्व गुणस्थान को पुनः प्राप्त हो।
मिश्र गुणस्थान - यह रजोगुण प्रधान है। सत्व और तम रजोगुणाधीन होते हैं।
सम्यग्दृष्टि गुणस्थान - विचार सम्यकत्व या सत्व गुण प्रेरित आचार रजो एवं तमो गुण प्रेरित रहता है। अतः विचार की दृष्टि से यह समन्वित सत्वगुण प्रधान अवस्था है तथा आचरण की दृष्टि से सत्व समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है।
देशविरत सम्यकत्व गुणस्थान - विचार की दृष्टि से सत्वगुण प्रधान तथा आचार की दृष्टि से आरम्भिक सत्व (अणुव्रती) प्रधान है। इसलिए यह सत्वोन्मुखी रजोगुण प्रधान अवस्था है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान - यहाँ आचार पक्ष पर सत्वगुण का प्रभुत्व थोड़ा बढ़ता है और तम तथा रज की प्रधानता न स्वीकारने की शक्ति का सृजन संयमादि के चलते होता है।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - यहाँ सत्वगुण का तमोगुण पर पूरा अधिकार या विकास (क्षयोपशम या क्षय) हो जाता है किन्तु रजोगुण पर अभी अधिकार होना शेष रहता है।
अपूर्वकरण गुणस्थान - यहाँ सत्व रजोगुण पर पूरा काबू पाने का प्रयास करता है।
अनिवृत्तिकरण गुणस्थान - यहाँ रजोगुण को काफी अशान्त बनाकर काबू पाने का प्रयास किया जाता है किन्तु रजोगुण पूर्णतया निःशेष नहीं होता है। रागात्मक अति सूक्ष्म लोभ प्रवृत्तियाँ छद्मवेश में अवशेष रहतीं हैं।
सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान - इसमें राजस पर पूर्ण स्थापत्य हो जाता है।
उपशान्तमोह गुणस्थान - इस अवस्था में साधक की तमस और राजस अवस्थाओं का पूर्ण उपशम उन्मूलन (यदि क्षयोपशम) न होने सेसत्व की स्थिति कमजोर पड़ जाती है।
क्षीणमोह गुणस्थान - इस गुणस्थान में साधक तमो-रजो गुण का पूर्ण नाश करके पहुँचता है। सत्व गुण का तमस व राजस के साथ चलने वाला संघर्ष समाप्त हो चुका होता है। नैतिक पूर्णता की इस अवस्था में इन तीनों गुणों का साधन रूपी स्थान समाप्त हो जाता है।
सयोग केवली गुणस्थान - यह गुणातीत अवस्था की शुद्ध आत्मतत्व रूप स्थिति है यद्यपि शरीर के रूप में इसका अस्तित्व रहता है फिर भी केवलज्ञान की आभा में अप्रभावित ही रहते हैं।
अयोग केवली गुणस्थान - यह गीता दर्शन के मुताबिक गुणातीत एवं देहातीत अवस्था है जिसमें साधक योग क्रिया के द्वारा नश्वर शरीर का त्याग करता है। जैन परम्परा में इसी अवस्था को अयोग केवली के रूप में जाना जाता है।

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डॉ. दीपा जैन
मानद शोध निदेशक- जनसहभागिता विकास संस्थान,
73 महादेवनगर, न्यूलोहामण्डी रोड,
जयपुर-302013 (राजस्थान)

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