logo

कवि फूलचंद गुप्ता की लंबी कविता -- शिवाकाशी के पैंतालीस हज़ार बच्चे

गुजरात के हिन्दी के प्रगतिशील कवि फूलचंद गुप्ता का नया कविता-संग्रह ‘महागाथा’ (अरावली प्रकाशन, हिम्मतनगर, प्र. आवृत्ति-2011) में से प्रस्तुत कविता ली गई है।  

अबाल-मज़दूरी और बच्चों का शोषण गरीब और अल्प विकसित देशों की एक प्रमुख समस्या रही है। क्योंकि भारत जैसे गरीब देशों की अधिकांश आबादी दिन-भर कठोक परिश्रम करने के बाद शाम को आधा पेट खाकर सो जानेवाली आबादी है। गरीब, श्रमिक परिवार में बेहद ज़रूरी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए घर के छोटे-बड़े सभी सदस्यों को मज़दूरी और श्रम करना पड़ता है। गरीब परिवार के लड़के इस मायने में उनकी संपत्ति होते हैं, क्योंकि पाँच वर्ष के होते ही छोटे-बड़े कुटीर उद्योगों में, घरों में, हॉटलों और चाय की खोमचियों पर काम करने लग जाते हैं और परिवार को आर्थिक मदद करने लग जाते हैं।

बच्चों को मज़दूरी पर रखने के अनेक फायदे हैं। और इन फायदों को काम देनेवाल शोषक अच्छी तरह से जानता है और अपने इस ज्ञान का भरपूर लाभ उठाता है। बच्चे उम्र में छोटे होने के कारण प्रतिरोध नहीं करते। उन्हें बड़ी आसानी से कम दामों में फुसलाया जा सकता है। उनमें वर्गीय चेतना का अभाव होता है। वे शोषण के विश्वव्यापी दुष्चक्र और उससे उत्पन्न व्यवस्था के साजिश को नहीं समझ पाते, क्योंकि उनका बौद्धिक विकास इतना नहीं होता। वच्चे अपने शारीरिक स्फूर्ति के कारण प्रौढ़ों से ज्यादा और अधिक घंटों तक कार्यरत रह सकते हैं। उन्हें डराया जा सकता है, धमकाया जा सकता है, ललचाया और फुसलाया जा सकता है। यहाँ तक कि आवश्यकता पड़ने पर पीटा भी जा सकता है। उनकी ओर से खतरे की कोई बात नहीं होती। दूसरी ओर बच्चों के माता-पिता भी उन्हें काम पर थोड़ी-सी अतिरिक्त आवक की लालय में भेज देते हैं। इस तरह बच्चों के माता-पिता को आर्थिक सहायता मिल जाती है और शोषक को कम दामों में मनचाहा काम करनेवाले बाल-मज़दूर। और शोषण की चक्की चलती रहती है।  

जैसा कि हम जानते हैं कि शिवाकाशी दक्षिण भारत का एक छोटा-सा, किन्तु महत्त्वपूर्ण नगर है। महत्त्वपूर्ण इसलिए, क्योंकि यहाँ भारत के संभवत: सब-से बड़े पटाखे बनाने के कारखाने आये हुए हैं। यहाँ के बने हुए पटाखे भारत-वर्ष के छोटे-छोटे गाँवों से लेकर बड़े-बड़े शहरों तक दीपावली के अवसर पर उपलब्ध होते हैं। इतना ही नहीं पड़ोशी देशो में भी ये पटाखे भेजे जाते हैं। दीपावली के त्यौहार के लिए शिवाकाशी में पूरे वर्ष पटाखे बनते रहते हैं। यह वहाँ का मुख्य गृहउद्योग भी है। वहाँ के घर-घर में कारखाने चलते हैं। और संपूर्ण काम चार से चौदह वर्ष के बीच के बच्चों द्वारा करवाया जाता है। उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार पैंतालीस से सत्तर हज़ार जितने बच्चे इस कार्य में रोज़ जुटे होते हैं। यह उनके कठोर परिश्रम का ही परिणाम है कि देश के सुखी और संपन्न घरों के शेष बच्चे दीपावली के अवसर पर रंग-बि-रंगी पटाखों से खेलते हैं और आनंद लेते हैं। उन बच्चों को शिवाकाशी के कारखानों में काम कर रहे बच्चों की वास्तविक स्थिति का कोई ज्ञान नहीं होता। वह तो शिवाकाशी नाम का शहर कहाँ बसा हुआ है यह भी नहीं जानते। वह तो यही समझते हैं कि शिवाकाशी खुशियों का छलकता हुआ कोई तालाब या आनंद का पहाड़ है। जहाँ से इतने सारे पटाखे आते हैं, जब कि वहाँ के बच्चों का सारा जीवन आँसुओं में डूबा हुआ होता है।

“पैंतालीस हज़ार बच्चे जो अभी और
बड़े हो सकते थे
धरती और आकाश के बीच
और घेर सकते थे थोड़ी-सी जगह
जीवंत कर सकते थे
निस्तब्ध पड़ा घरती का रिक्त टुकड़ा
और थोड़ा-सा बड़ा हो सकता था
उनकी भुजाओं का घेरा
बनाते हैं तरह-तरह के पटाखे
तरह-तरह के बम, तरह-तरह के राकेट्स
उन्हें नहीं मालूम
कितनी उम्र का होने के बाद
जाया जाता है
स्कूल
खेल के मैदान के नाम पर क्यों रखा जाता है
खाली
इतना बड़ा भू-भाग
कितने वर्षों की लगातार तैयारी के बाद
पूरी होती है ज़िन्दगी की भूमिका
कब होता है पहला दिन
ज़िन्दगी की शुरूआत किस दिन से होती है?”

कवि शिवाकाशी के इन बच्चों की स्थिति से खूब व्याकुल है। वह कहता है कि इन बच्चों की ज़िन्दगी शुरू होने के पूर्व ही अंत की ओर अग्रसर हो गई है, क्योंकि उनका समय यदि अथक परिश्रम करते हुए उन कारखानों में नहीं पसार हो रहा होता तो वह भी देश के एक स्वस्थ नागरिक होते। किन्तु शोषण के कारण उनका शारीरिक विकास भी अवरोध हो जाता है और उनकी उम्र भी।

“शेष दुनिया से शेष
यह शिवाकाशी है
चार से चौदह के बीच की उम्र का होना
यहाँ का नागरिक होने की
पहली योग्यता है
चौदह के बाद यहाँ आदमी निकम्मा हो जाता है
इसके बीच की जिन्दगी
लोचदार होती है
थकती नहीं कभी इस बीच उम्र
इसे कैद कर नहीं रख सकते अपने पास
घर के परकोटे
त्वचा का फट जाना
या रीढ़ का टूटने के हद तक कमान हो जाना
इसे खलता नहीं ज्यादा देर
क्योंकि ज्यादा देर तक बच्चे
नहीं देखते रहते ज्यादातर चीज़ें
मसलन उनकी आँखें नहीं झाँकती
ज्यादा देर
खिड़की से झाँकता आकाश
उनकी आँखों में
एक डरा हुआ सपना मँडराता रहता है
अक्सर जो धीरे-धीरे
शाम को खाना मिलने की उम्मीद को खाता रहता है”

कवि इस कविता में बाल-श्रम की स्थितियों का एक भावात्मक कोलाज खड़ा करता है। और शोषण के विश्वव्यापी षड्यंत्र के दुष्परिणामों का एक जीता-जागता चित्र खड़ा करता है। शोषण की यथास्थिति का दृश्य किसी भी भावनाशील पाठक को दहला देने के लिए काफ़ी है। तीन-चार रुपयों के लिए तेरह घंटे तक उत्साहपूर्वक काम करनेवाले बच्चों से ही कवि को उम्मीद है, क्योंकि ये बच्चे हताश नहीं। वह कठोर परिश्रम के बाद भी प्रसन्न भी है उनकी आँखों में बेहतर समय के स्वप्न है। कवि को उन पैंतालीस हज़ार बच्चों में जो सब-से छोटा बच्चा है उसमें भविष्य दिखाई देता है, जो उज्ज्वल है। क्योंकि वह बच्चा मन-ही-मन सोचता है और तय करता है कि अगली दीपावली तक वह सारी दुनिया के बच्चों के लिए नहीं अपने लिए बम बनायेगा और निर्भीक होकर दीपावली का उत्सव मनाएगा। इस तरह सड़क के बीचोबीच बम फोड़कर सारी दुनिया को अपना महत्त्व बताते हुए वह अपनी उपस्थिति दर्ज करेगा।  

हाल ही में 5 सितम्बर के दिन हुए शिवाकाशी के पटाखों के कारखानों में लगी आग की याद हमें यह कविता दिलाती है। 300 लोग काम कर रहे थे। उसमें से करीबन 75 लोगों की जान गई हैं। अखबारवालों ने ‘लोगों’ शब्द का प्रयोग किया है। क्या वे बड़े लोग थे या छोटे-छोटे बच्चे जो शिवाकाशी के कारखानों में काम करते हैं। उनकी मासुमियता तथा कमजोरियों का फायदा उठा रहे स्वार्थी पूँजीवादी समाज का पर्दाफाश करती है यह कविता।

संदर्भ-ग्रंथ :::

1. ‘महागाथा’ – फूलचंद गुप्ता, (अरावली प्रकाशन, हिम्मतनगर, प्र. आवृत्ति-2011)

*************************************************** 

डॉ. अमृत प्रजापति 
हिन्दी विभागाध्यक्ष 
सरकारी आर्ट्स एवं कॉमर्स कॉलेज, कडोली

Previousindexnext
Copyright © 2012 - 2024 KCG. All Rights Reserved.   |   Powered By : Knowledge Consortium of Gujarat
Home  |  Archive  |  Advisory Committee  |  Contact us