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त्रिविक्रमकृत नलचम्पू के मौलिक परिवर्तनों की समीक्षा

गद्य अवं पद्य के समानुपातिक मिश्रित काव्य को संस्कृत साहित्य में चम्पूकाव्य का नामाभिधान दिया गया । विभिन्न आलंकारिकों ने गद्य तथा पद्य के मिश्रित काव्यरूप को मिश्रकाव्य कहा था । नाटक आदि मिश्र दृश्यकाव्य के रूप है ।[1] किन्तु चम्पूकाव्य मिश्र श्राव्यकाव्य का रूप है । इसकी सर्वप्रथम परिभाषा ‘काव्यादर्श’ में दण्डीने प्रस्तुत की ।[2] उसी परिभाषा को साहित्यदर्पणकारने लगभग ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया ।[3] किन्तु इस परिभाषा से चम्पूकाव्य का स्वरूप सम्यग्तया स्पष्ट नहीं हो पाता । चम्पूकाव्य के उपलब्ध उदाहरण दण्डी के लगभग ढाई सो वर्ष बाद से मिलने प्रारंभ होते हैं । उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि चम्पूकाव्य कथानकबद्ध गद्य-पद्य मिश्रत काव्यरूप है । एक ओर तो यह चम्पूकाव्य कथा, आख्यायिका आदि से भिन्न है । क्योंकि कथा आदि में पद्यों का प्रयोग उपदेश अथवा नीतिकथन के रूप में किया जाता है किन्तु चम्पू में गद्य और पद्य प्रायः समानुपात होतें हैं । पद्य भी गद्य भाग की ही भाँति कथानक से सम्बद्ध होकर ही प्रस्तुत होते चलतें हैं । दूसरी ओर चम्पूकाव्य गद्य-पद्य मिश्रित विरुद नामक काव्यभेद से भी भिन्न होता है । जिन में किसी राजा की प्रशस्ति पाई जाती है । चम्पू में गद्य और पद्य का वैसा ही सुन्दर पारस्परिक सम्बन्ध पाया जाता है । जैसा संगीत में वाद्य के सहयोग से गीत का ।

विद्वानों ने चम्पू शब्द की जो व्युत्पत्ति प्रस्तुत की है उससे भी चम्पूकाव्य का गद्य-पद्य सम्मिश्रित स्वरूप ही प्रगट होता है ।[4] चम्पयति अर्थात् सहैव गमयति प्रयोजयति गद्यपदे इति चम्पूः । हरिदास भट्टाचार्यने चम्पू शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है । - चमत्कृत्य पुनाति, सहृदयान् विस्मयीकृत्य प्रसादयति इति चम्पूः । भट्टाचार्य की इस व्याख्या की दृष्टि से चम्पूकाव्य में शब्द चमत्कार और अर्थ प्रसाद गुण होना चाहिए ।

त्रिविक्रमकृत नलचम्पू चम्पूसाहित्य में आदि कृति है । ‘चम्पू’ का नामोल्लेख कर के दण्डी द्वारा जागृत की गई जिज्ञासा का समाधान करने का कार्य त्रिविक्रम भट्टने नलचम्पू के माध्यम से किया ।

नलचम्पू दमयन्ती कथा के नाम से भी प्रसिद्ध है । महाभारत के वनपर्व में उल्लेखित नलोपाख्यान इसका आधारस्रोत है । अलबत्त, कविने मात्र नल के दौत्यकर्म तक का ही वस्तु लेकर दमयन्ती परित्याग के मार्मिक और करुण अंश से भावकों को बचा लिया है । वैसे भी चम्पूकवि नावीन्य के शौकीन होते है। संभवतः त्रिविक्रमजीने भी दमयन्ती के सौन्दर्य से नल को और नल के व्यक्तित्व से दमयन्ती को और अपनी इस कथा के आलेखन से वाचकों को मुग्ध बनाने का प्रयास किया है ।

नलचम्पू का उद्गमस्थान

वेदकाल से लेकर सदीओं पुरानी होते हुए भी नलकथा हंमेशां से प्रिय और प्रसिद्ध रही है । त्रिविक्रम भट्टजीने इस नलकथा की प्रेरणा महाभारत से पाई जाने की संभावना है । महाभारत के वनपर्व के अध्याय 52 से 79 तक यह नलकथा का वर्णन है । वन में गये हुए युधिष्ठिर को बृहदश्वने नलोपाख्यान कहा है । नलचम्पू में वर्णित कथानक मात्र 53 से 56 चार अध्याय में ही समाविष्ट हो जाता है ।

नलचम्पू में वस्तु का फलक संक्षिप्त है । वैसे भी चम्पू में कथानक से ज्यादा वर्णन की ओर अभिरुचि रहती है । उसमें भी बाणभट्ट को किसी कविने अपने आदर्श के रूप में स्वीकार कीया तब तो कथाप्रवाह मन्द ही हो जाता है । ऐसे उदाहरण गद्य में नहीं पद्य में भी पाये गयें हैं । यहां भी कथाप्रवाह में वस्तु का संविधान प्रसंगो से ज्यादा वर्णनों से किया गया है । नलचम्पू सात उच्छ्वासों में विभक्त है । इसमें प्रथम तीन उच्छ्वास में निम्नलिखित प्रसंगो का आलेखन है ।

प्रथम उच्छ्वास

  1. नल मृगया और सूकरवध
  2. नल और पथिक की मुलाकात
द्वितीय उच्छ्वास
  1. नल का वनविहार
  2. हंस प्रसंग
  3. वानरी प्रसंग
तृतीय उच्छ्वास
  1. दमनक मुनि की मुलाकात
तीनों उच्छ्वासों में वर्णनों प्रचुर मात्रा में हैं ।

प्रथम उच्छ्वासमें (1) त्रिविक्रम का वंशपरिचय (2) आर्यावर्त का वर्णन (3) आर्यावर्त के निवासीओं का सुख (4) निषध जनपद (5) निषधानगरी का वर्णन (6) नल वर्णन (7) नल का व्यावहारिक जीवन (8) वर्षावर्णन (9) मृगया के बाद उजडे हुए वन का वर्णन (10) कामविह्वळ नल का वर्णन और, द्वितीय उच्छ्वास में (1) वर्षा के बाद आई हुई शरदऋतु का वर्णन (2) वनपालिका द्वारा विहारवन का वर्णन (3) हंस द्वारा किये गयें दक्षिणदेश और कुंडिनपुर के वर्णन (4) भीम और प्रियंगुमञ्जरी तथा दमयन्ती के वर्णन (5) चन्द्रिका वर्णन तृतीय उच्छ्वास में (1) प्रभातवर्णन (2) मध्याह्नवर्णन (3) राजा भीमदेव के स्नान, आहार आदि का वर्णन (4) प्रियंगुमञ्जरी की सगर्भावस्था, कन्याजन्म (5) दमयन्ती का शैशव, शिक्षण और तारुण्य का वर्णन यहाँ प्रसंगो से ज्यादा वर्णन देखे जातें है । अलबत्त, कवि का साफल्य है कि प्रचूर वर्णन कभी कथाप्रवाह में बाधक नहीं बनते । वर्णनालेखन और प्रसंगालेखन में त्रिविक्रम भट्ट आयोजनपूर्वक आगे चल रहे है ऐसा प्रतीत होता है ।

मृगया और सूकरवध

आर्यावर्त, निषध नल और वर्षा के वर्णन बाद यह प्रसंग का आलेखन है । यह प्रसंग नलकथासाहित्य को कवि का मौलिक प्रदान है । वर्षाऋतु आते ही प्रकृति में परिवर्तन शुरू हो गयें । उद्दीपक वर्षा प्राणी और प्रकृति में काम का संचार करके नवजीवन का सिंचन करती है और प्रकृति एक रमणी की भाँति शोभायमान लगती है । ऐसे समय में आखेट वन के संरक्षक राजा को सूचना देते है कि, दो दो स्फटिकों को धारण करते हुए अञ्जनपर्वत या तो बलाका से आच्छादित जलपूरित मेघ या तो बिना सूंढ के हाथी की भ्रान्ती जगाता दो दाँतों के कारण भयानक लगता हुआ सूकर कहीं से आ पहूंचा है वह कहीं पर कंद या कसेरु उत्पन्न हो ऐसी भूमि खोद रहा है और लीला सरोवर में जलक्रीडा कर रहा है ।

यह समाचार से संयमी नल के मन में वर्षा की मादक हवा के कारण आकर्षण पेदा हुआ । नल ने अपने सेनापति बाहुक को मृगया के लिये सैन्य को सज्ज करने की आज्ञा दी । तैयार किये गये सैन्य के साथ नल ने आखेट वन प्रति प्रस्थान किया । और सबने थोडी ही क्षणों में वन को घेर लिया ।

सबने गजराजों को निस्तेज किया, गेंडो को पकडा, शिकारीओं के भय से शरभ पागल बनें । मृगों ने डर से आक्रन्द किया । बाघ भय से चञ्चल बन के गुफा के अंदर छीप गयें । राजा नलने हाथी, सिंह, शशक, मृग आदि का नाश करके भयानक सूकर का सामना किया । जलाशय में लगे दावानल के समान बाणों से बचने के लिये बहुत प्रयत्न किये किन्तु अन्त में राजा के हाथों उसका नाश हुआ और श्रान्त नल विश्राम के लिये साल वृक्ष के नीचे बैठ गये ।

इस घटना में वर्णन का प्रमाण ज्यादा है । लगभग नव पद्य और गद्यखंड में आलेखित इस प्रसंग में गद्य-पद्य की समतुला पाई जाती है । गद्यखंडो का विस्तार है लेकिन बाणभट्ट के गद्य जीतना नहीं । गद्य में आने वाली सरलता और पद्यो की समतुला के कारण उत्कलिका और चूर्णक दोनों प्रकार की गद्यशैली देखी जाती है । पद्यों का प्रयोग ज्यादातर गद्यखंडों के आलेखन के उपसंहार रूप में या तो वर्णनों के लिये किया गया है ।

इस प्रसंग में संभवतः शाकुन्तल के दुष्यन्त की मृगया और कादम्बरी में शबरी द्वारा घेरे हुए वन की प्रेरणा की असर पाई जाती है । समग्र वर्णन के आलेखन में कवि की अद्भुत स्वस्थता के दर्शन होते है । प्रसंग की मौलिकता कवि की प्रतिभा को उजागर करती है ।

इस प्रसंग द्वारा राजा नल को वन में लाकर वहाँ पथिक से मिलन करवाकर राजा के मानसपट पर अनुपम लावण्यमयी अज्ञातनामा सुन्दरी को आलेखित करके उत्कण्ठा जगाने का प्रधान हेतु है । इस में सूकरवध केवल पूर्वभूमिका रूप बना है ।

नल और पथिक की मुलाकात

इस प्रसंग की प्रारंभिक भूमिका उज्जड आखेट वन के वर्णन से होती है । मृगया के बाद हुए संहार से वनलताओंने पुष्परूपी नेत्रों से उष्ण परागबिन्दु के रूप में आँसु बहाये । विविध पक्षीओं के क्रन्दन द्वारा वनदेवताओं ने भी उपालंभ दिया...

श्रान्त क्लान्त राजा एक साल वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे तब वहाँ सिर पर लतावल्कल से जिसने अपने श्वेत केश को बांधा है, स्कन्ध पे दण्ड, गले में मृन्मणि माटी का मणि, रंगीन कौपीन तथा पाँव में लिटा लटकाये हुए, ऐसा कोई पथिक हाथ में क्रमुक वृक्ष की छाल से बनाया हुआ भिक्षापात्र लेकर आया ।[5] उस पथिक ने राजा के[6] नयनकमल, जूडी हूई भ्रमर, चन्द्र समान मुख, कमल समान रक्तवर्णी करतल प्रदेश, गले में शङ्ख समान तीन रेखायें तथा प्रभावशाली कान्ति को देखकर कामदेव समान राजवी का अभिनन्दन किया । तीर्थयात्रिक के साथ प्रारंभिक बातचीत करके गोष्ठीसुख प्राप्त करने हेतु यात्रिकने देखें हुए या तो सुने हुए सुन्दर प्रदेशों और कथानकों के बारे में कुछ कहने का प्रस्ताव नल राजाने रख्खा ।

प्रस्ताव के बाद यात्रिकने दक्षिण के श्री शैल पर्वत और कावेरी-गोदावरी के रमणीय तटप्रदेशों की प्रशंसा की । स्कन्द देव कार्तिकेय के दर्शन करके आते समय एक वटवृक्ष के नीचे विश्राम करते वक्त यात्रिकने देखा हुआ आश्चर्य उसने विस्तार से बताया ।

प्रौढ सखीयों के साथ, चामर लहराती हुई एक गजगामिनी राजकुमारी को देखकर पथिक सोचने लगा कि लक्ष्मी या तो पार्वती समान इस युवती को देखने के लिये ब्रह्माने हजार आँखे दी होती तो अच्छा था। वह युवती उत्तर देश के पथिक को कुछ पूछ रही थी । उस पथिकने भी कोई युवान राजा का वर्णन किया था । जिसे सूनकर युवती को रोमान्च उत्पन्न हुआ । विस्मय से मूढ बना हुआ यह यात्रिक उस कन्या के बारे में पूछना भूल गया । कन्या के वर्णन से मुग्ध हुए राजाने पथिक को आभूषणों की भेट देकर विदाय दी और नगर में आ के अज्ञात सुन्दरी प्रति उद्भवित अनुराग के कारण विह्वल बने । और पथिक को भी ऐसी कन्या के बारे में पूछता रहा ।

इस प्रसंग के आलेखन में तेरह पद्य और विस्तृत गद्यखंड जिस में कई दीर्घ और कई अतिसंक्षिप्त है । यहाँ भी गद्य-पद्य की समतुला रख्खी गई है । दक्षिण का श्री शैल पर्वत, कावेरी के तटप्रदेश और कन्या के वर्णन बहुत ही सरल शैली में आलेखित है । बाण के वर्णनों की तरह श्लीष्ट विरोधाभासी और उत्प्रेक्षा सभर नहीं है । राजा नल के धैर्यच्युति और मनोमंथन के आलेखन में कवि का साफल्य रहा है ।

यह प्रसंग भी नलकथा साहित्य को कवि का नया उपहार है । मूल कथा में और श्री हर्ष के नैषधीयचरित में आती नलकथा में नल-दमयन्ती पथिकों, बन्दीजनों, चारणों आदि से परस्पर सौन्दर्य और यशोगाथा सून के आकर्षित हुए है । परन्तु पथिक का एक पात्र के रूप में सर्जन कवि का मौलिक विचार है ।

इसके अलावा कपि प्रसंग भी कविकल्पना का आविष्कार है । साथोसाथ दमयन्ती की माता का नाम भी कवि की कल्पनासमृद्धि का परिपाक है । मूल कथा में केवल भीम का ही नाम मिलता है । भीमदेव और प्रियंगुमञ्जरी के प्रसन्न दाम्पत्य का वर्णन कविने सुचारु रूप से किया है । एक वसन्त ऋतु में राजा और राजमहिषी वरदा नदी के पवित्र तट पर विहार कर रहें थे । वहाँ उन लोगोंने देह को खुजलाती हुई चञ्चल हाथों वाली, बच्चे को उदर से चिपकाये हुई और दूसरे पीठ पर रख्खे हुई एक कपिकुटुम्बिनी देखी । उनको देखते ही दोनों में भीमदेव और प्रियंगुमञ्जरी में अनपत्यता का विषाद जन्मा । विशाल राज्य, परिजन और जीवन उनको निरर्थक लगें । अन्त में भवानीपति देवाधिदेव भगवान शङ्कर की आराधना करने का दोनों ने निर्णय किया ।

यह कपि प्रसंग बहुत ही छोटा-सा है । केवल सरल गद्य में आलेखित है । फिर भी यह प्रसंग एक नूतन उपहार है । दम्पती में सन्तान की झङ्खना जगाने का एक सुन्दर मनोवैज्ञानिक प्रयास है । इस प्रसंग से सन्तानप्राप्ति की स्वाभाविक झङ्खनाने तीव्रता धारण की और शिव की आराधना करने की दम्पती को प्रेरणा मिली । यहाँ कवि की शिव के प्रति उत्कट भक्ति दिखाई देती है ।

आगे आने वाले दमनक मुनि के आशीर्वाद और उसके बाद कन्यारत्न की प्राप्ति, दमनक मुनि की याद में दमयन्ती नामकरण जैसे प्रसंग में भी अपनी परिमार्जित शैली का परिचय करवाया है । हंस प्रसंग तो नलकथा का हार्दरूप प्रसंग है । फिर भी त्रिविक्रमजीने यहाँ भी अपनी विशिष्टता को सिद्ध किया है।

कविने महाभारत के वनपर्व में से वस्तु लेकर अपनी अनूठी शैली में ढालने का प्रशस्य प्रयास किया है। कई विद्वानोंने नलचम्पू को अपूर्ण कृति माना है, क्योंकि उस में नल के दौत्यकर्म तक की ही कथा है। लेकिन यह कहने में अतिशयोक्ति होगी की त्रिविक्रम भट्ट का उद्देश संपूर्ण नलकथा का आलेखन करना था । कालिदास की तरह तप्तेन तप्तमयसा घटनाय योग्यम् । अर्थात् तप्त लोहे को तप्त लोहे के साथ मिलाया जाय । प्रणय दोनों ओर समकक्ष होना चाहिए । बस यह कार्य सम्पन्न होने पर कविने भी नलकथा को आगे विस्तारित न करने में ही कविकर्म की सफलता मानी होगी ।

संदर्भ-सूचि::

  1. मिश्राणि नाटकादीनि । काव्यादर्श (1-31)
  2. गद्यपद्यमयी काचिच्चम्पूरित्यभिधीयते । काव्यादर्श (1-31)
  3. गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते । साहित्यदर्पण (6-336)
  4. चपि गत्याम् । चुरादि गण ।
  5. मत्स्यपुराण (12-56) में वीरसेन के पुत्र नैषधराज का उल्लेख मिलता है ।
    विन्टरनिट्स के मतानुसार कूर्मपुराण और अग्निपुराण में सूर्यवंशी नल का उल्लेख है वही नैषधनल ही शतपथ ब्राह्मण में उल्लेखित नैषधनड है ।
    गुणाढ्य की बृहत्कथा के आधार पर रची गई क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी में भी (लंबक-15) नल का उल्लेख प्राप्त है ।
  6. वल्लीवल्कपिनद्धधूसरशिराः स्कन्धे-दधदण्डकं
    ग्रीवालम्बितमृन्मणिः परिकुथत्कौपीनवासाः कृशः ।
    एकः कोऽपि पटच्चरं चरणयोर्वद्धवाऽध्वगः श्रान्तवा-
    नायातः क्रमुकत्वचा विरचितां भिक्षापुटीमुद्वहन् ।। (नलचम्पू 1-52)
    अब्जश्रीसुभगं युगं नयनयोर्मौलिर्महोष्णीषवा-
    नूर्णारोमसखं मुखं च शशिनः पूर्णस्य धत्ते श्रियम् ।
    पद्मं पाणितले गले च सदृशं शङ्कस्य रेखात्रयं
    तेजोऽप्यस्य यथा तथा सजलधेः कोऽप्येष भर्ता भुवः ।। नलचम्पू 1-53 ।।

    संदर्भ-पुस्तकेः:

    1. ‘काव्यादर्श’, चौखम्बा संस्कृत संस्थान
    2. नलचम्पू’, सरस्वती पुस्तक भंडार, 1969, प्रथम संस्करण
    3. ‘साहित्यदर्पण’, चौखम्बा संस्कृत संस्थान
    4. ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’, जोधपुर विश्वविद्यालय, प्रथमसंस्करण

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    प्रा. डो. के. डी. पंचोली
    अध्यक्षा, संस्कृत विभाग,
    सरकारी विनयन कोलेज, सेक्टर-15, गांधीनगर

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