ऋग्वेद ( 01 ) के दीर्घतमस् ऋषि कें अग्नि सूक्तों का दर्शन
ऋग्वेद का प्रधान देवता इन्द्र हैं । उनके बाद 200 सूक्तों में अग्नि देवता कि स्तुति की गई हैं । वैदिक देवतासृष्टि में इन्द्र कि लोकप्रियता ज्यादातर हैं । लेकिन उनके तुरन्त बाद अग्निदेवता का स्थान भी प्रभावक रहा हैं । ऋग्वेद के मण्डलों का संग्रथन उनके ऋषिओं कि दृष्टि से किया गया हैं । दूसरे मण्डल से शुरु कर के आठवें मण्डल तक के सारे मन्त्र अच्छी तरह से सुग्रथित हैं । क्योकि इस प्रत्येक मण्डल के कोइ एक ही ऋषि निश्चित हैं । जैसे कि दूसरे मण्डल के ऋषि गृत्मसद हैं । तीसरे मण्डल का विश्वामित्र,चौथे का वामदेव,पाँचवें का अत्रि, छठे का भारद्वाज, साँतवे का वसिष्ठ और आँठवे मण्डल का ऋषि कण्व, अंगिरा और उनके वंशज हैं । लेकिन पहले, नवमे और दशमे मण्डल का कोई एक ऋषि नहीं हैं । इन तीन मण्डलों में एकाधिक ऋषिओं की रचनायें अकत्रित हुई हैं ।1 पहले मण्डल की रचना में मधुच्छदस् ,कण्व मेधातिथि,आजिगर्ति शुनःशेप, आंगिरस हिरण्यस्तूप, आंगिरस सव्य, आंगिरस कुत्स, गोतम, अगस्त्य, कक्षीवान् और दीर्घतमस् जैसे अनेक ऋषिओं का प्रदान हैं । इन सब ऋषिओं में दीर्घतमस् ऋषि का दर्शन कुछ विशिष्ट प्रकार का देखा गया हैं । परन्तु उनसे पहले दीर्घतमस् ऋषि कौन थे ? उनका नाम दीर्घतमस् कैसे पडा ? वह भी जानना जरूरी हैं ।
आंगिरस कुल का एक सूक्तदृष्टा ऋषि दीर्घतमस् ममता एवं उचथ्य ऋषि का पुत्र था । इसलिये उसको मामतेय और औचत्थ ये दो उपनाम प्राप्त हुएँ थे ।2 बृहस्पति के शाप के कारण वो जन्म से अन्धा था ।3 एवं 4 इसलिये इसे दीर्घतमस् अर्थात् ‘ दीर्घ अन्धकार ’ ऐसा नाम प्राप्त हुआ था । यह ऋषि सौ वर्षो तक जीवित रहा ।5 सौ साल की बूढी उमर में उसने केशव परमेश्वर कि उपासना की । उस से इसे दृष्टि प्राप्त हुई । इस दीर्घतमस् ऋषि संबंधी अन्य कथाँयें महाभारत शान्तिपर्व,मत्स्यपुराण और वायुपुराण में भी प्राप्त होती हैं। सभी कथाओं में ऋषि को अन्धा ही बताया गया हैं ।
यह दीर्धतमस् ऋषि ने ऋग्वेद के पहले मण्डल में 140 से 164 तक कें सूक्तों कि रचना की हैं । ये सभी सूक्त अग्नि, मैत्रावरुण, विष्णु और अश्विनौ देवता संबंघी सूक्त हैं । दीर्धतमस् ऋषि ने अग्नि देवता संबंधी ग्यारह (140 से 150 )सूक्तो कि रचना कि हैं । इस अग्नि देवता विषयक सूक्तों कि विशेषता यह हैं कि,अन्य मण्डलों में अन्य ऋषिओंने अग्नि देवता से प्रकाश के अलावा उत्तम रत्न, धन औरपुत्रादि कि कामना कि हैं । लेकिन यह दीर्धतमस् ऋषि ने अग्नि देवता से निरंतर प्रकाश कि ही कामना कि हैं । जैसे कि,
कृधि रत्नं सुसनितर्धनानां स घेदग्ने भवसि यत्समिद्धः । उपर्युक्त तीसरे मण्डल के मन्त्र में ऋषि विश्वामित्र कहते हैं कि, धन कि अभिलाषा वाले को अच्छी तरह देने वाले हे अग्नि ! सुवर्ण और अश्वादि धनों में जो उत्तम धन रत्न हैं वह रत्न तुम हमको दीलाओं । क्योकि जब हम आप को समिधादि कि आहुति देतें हैं, तब दीप्तिमान् बने हुए आप धन के दाता बन जाते हो । इस प्रकार यहाँ ऋषि विश्वामित्र अग्नि देव से प्रकाश के अलावा श्रेष्ठ रत्नों कि अभिलाषा रखते हैं ।
सातवे मण्डल में ऋषि वसिष्ठ भी अग्नि देव से प्रकाश के साथ साथ श्रेष्ठ रत्नों कि याचना करते हैं । जैसे कि,
दा नो अग्रे धिया रयिं सुवीरं स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम् । हे (शत्रुओं को) हराने में कुशल (सहस्य) अग्नि ! हमारे स्तोत्र से खुश हो कर हमको वीर पुत्र और अच्छे अपत्य रूप धन (रयिम्) प्रदान करे । जिस धन को यातु प्रयोग करने वाले शत्रु भी नष्ट न कर शके ।
उपर्युक्त दोनों मण्डल में ऋषिजन अग्नि देव से प्रकाश के अलावा श्रेष्ठ रत्नों, पुत्र-पौत्रादि और धन-समृद्धि कि अभिलाषा भी रखते हैं । लेकिन दीर्धतमस् ऋषि ने अपने अग्नि देवता संबंधी सूक्तों में निरंतर प्रकाश कि ही कामना कि हैं । यह ऋषि ने कभी पुत्रादि और धन-समृद्धि कि कामना क्यूँ नहीं कि हैं वो बात भी यहाँ घ्यानास्पद और विचारणीय हैं । जिस ऋषि नाम दीर्घतमस् याँ ने कि गाढ अंधकार हो उस ऋषि को भला रत्नों, पुत्र-पौत्रादि और धन-समृद्धि कि अभिलाषा कैसे हो सकती हैं । उसके लिये तो सब से पहले अपने नेत्र रूप ज्योति कि आवश्यकता धन से ज्यादा जरूरी हैं । इसी वजह से यह ऋषि ने अपने सूक्तों मे केवल प्रकाश,ज्योति और द्युति कि ही याचना कि हैं । दीर्धतमस् ऋषि के अग्नि देवता संबंधी सूक्तों में इस प्रकार का विशिष्ट दर्शन पाया जाता हैं ।
यहाँ और दों बाते भी नोंधपात्र हैं । (1) दीर्धतमस् ऋषि ने अपने सूक्तों में कहीं भी इन्द्र देवता के लिए कोई पूरा सूक्त नहीं लिखा हैं । जिस समय में संसार के सारे ऋषि इन्द्र कि उपासना करते थे उसि समय यह ऋषि अग्नि कि उपासना में व्यस्त दिखते हैं । क्योकि इन्द्र से ज्यादा इस ऋषि को अपने नेत्रों के प्रकाश के लिये अग्निदेव कि आवश्यकचा ज्यादा थी ।
(2) दीर्धतमस् ऋषि ने अपने सूक्तों में जिन अन्य ऋषियों कि उपासना कि हैं । उन में भी सब देवता ऐसा प्रतित होता हैं कि, उन सब के पास से भी ऋषि एक या दूसरी तरह से अपने नेत्रज्योतिओं कि ही कामना करते हैं । जैसे कि मित्रावरुण कि उपासना का हेतु उन्हों ने दिये शापशमन का हो सकता हैं । विष्णु कि स्तुति में भी सूर्य कि ही उपासना हो सकती हैं । क्योकि उस समय में सूर्य को शंखचक्रगदापद्म वाले विष्णु नहीं बल्के सूर्य के रूप में पूजा जाता था । और अश्विनौ देवता देवो के वैद थे । सायद उनके पास से कोई औषधी मील जाय और अपने को नेत्रज्योति प्राप्त हो जाय इस बिचार से भी ऋषि ने इन देवताओं कि उपासना कि हों । इस प्रकार इन सभी देवताओं से ऋषि ने केवल प्रकाश कि ही कामना कि हैं ।
यह बात को 140 वे सूक्त के मत्रो के साथ देखीए ।
वेदिषदे प्रियधामाय सुद्युते धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये । वअभि द्विजन्मा त्रिवृदन्नमृज्यते संवत्सरे वावृधे जग्धमीं पुनः । मुमुक्ष्वो3 मनवे मानवस्यते रघुद्रुवः कृष्णसीतास ऊ जुवः ।
अस्माकमग्ने मघवत्सु दीदिह्यध श्र्वसीवान्वृषभो दमूनाः । इदमग्ने सुधितं दुर्धितादधि प्रियादु चिन्मन्मनः प्रेयो अस्तु ते ।   (सायणभाष्यम् – हे अग्ने ! ते तव तन्वः शरीरस्य घृतेनोज्ज्वलिताया ज्वालायाः,शुचि निर्मलं,शुक्रं दीप्तं यत् तेजः रोचते तेन सह रत्नं रमणीयं मणिमुक्तादिकं अस्मभ्यं वनसे अस्मान् संभजस्व ।।) यहाँ सायणाचार्य भी ‘ रत्नम् आ वनसे ’ का अर्थ लक्षणा से रमणीय तेजरूप मणिमुक्तादि को बाँटने वाला ऐसा करते हैं । यहाँ भौतिक सम्पतिरूप रत्न कि बात नहीं हैं लेकिन निर्मल प्रकाशरूप रत्न कि बात हैं । यहाँ विशेष बात यह हैं कि, ऋग्वेद के पहले मन्त्र में ऋषि मधुच्छदस् अग्नि के लिए ‘होतारं रत्नधातमम्’ शब्द का विनियोग करते हैं ।13 वहाँ भाष्य में सायणाचार्य ‘ रत्नधातमम् ’ का अर्थ ‘यागफलरूपाणां रत्नानामतिशयेन धारयितारं पोषयितारं वा ’ अर्थात् ‘यज्ञफल के परिपाक रूप से प्राप्त हुए अनेक रत्नों से हे अग्निदेव ! तुम हमारा पोषण करो ’ ऐसा करते हैं ।यहाँ रत्न शब्द का अर्थ भौतिक समृद्धि के सन्दर्भ में हैं । लेकिन दीर्घतमस् ऋषि के अग्नि सूक्त के संदर्भ में सायणाचार्य भी ‘ रत्नम् आ वनसे ’ का अर्थ लक्षणा से प्रकाश रूप रत्न ही करते हैं । इस से यह प्रतित होता हैं कि दोनों ऋषिओं का शब्द चयन एक प्रकार का हैं लेकिन उस के अर्थ में भिन्नता दिखाई देती हैं । इस प्रकार यह पूरे सूक्त में अग्नि के प्रकाशमान् गुणों कि प्रशंसा हैं । अग्नि प्रकाश का अधिष्ठाता देव हैं । इसलिए ऋषि अपना तमस् दूर करने के लिए अग्नि कि इस प्रकार कि उपासना करते हैं । ऋषि को धन-समृद्धि और पुत्रादि से ज्यादा अपनें नेत्रों की ज्योतिओं कि जरुरत हैं । इस विशिष्ट प्रकार का दर्शन यह सूक्त में देखा गया हैं । एकसों तैतालीसवे सूक्त में ऋषि कहते हैं कि, हे अग्निदेव ! जिस उत्तम अंतरिक्ष में आप व्याप्त हो वह अन्तरिक्ष कि उत्तमता,प्रकाश और पवित्रता पृथ्वी को प्राप्त हो । यहाँ भी ऋषि प्रकाश कि ही कामना करते हैं । ऋषि अन्त में कहते हैं कि, हे मनुष्यो ! संसार को जानने वाले (विश्ववेदसम्) और सर्वत्र जाने वाले (अरिरे) अस अग्नि को आपके गृहों में (स्वेदमे) प्रशंसायुक्त वाणियोओं से (गीर्भिः) अच्छी तरह प्राप्त करें । एकसों चवालीसवे सूक्त में कहा हैं कि, जो मनुष्य हविष्प्रदानादि से अग्नि को धारण करता हैं वह उसकी प्रकाशमान् (स्रुचः) दक्षिणा को प्राप्त करता हैं । दिवस और रात में पूज्यमान् अग्नि पूर्वे अंगारावस्था में जीर्ण था किन्तु इन्धनावस्था में तरुण हो जाता हैं । ऐसा अग्नि जरा रहित हो जाता हैं । ऋषि अन्त में कहते हैं कि, हे अग्नि ! आप हमारे हविष का सेवन करो ।स्तुति से प्रसन्न हो और स्थावर-जंगम के प्रति अनुकूल बनो । एकसों पैतालीसवे सूक्त में ऋषि कहते हैं कि, हे यजमानो ! आप अग्निदेव से (स्वर्गादि के बारे मे पूछीये । क्योकि वह सब जगह जाता हैं । इसलिए वह इस विषय में विशेषज्ञ (चिकित्वान्) हैं ।यहाँ भी ऋषि स्रगादि के बारे में जानना चाहते हैं लेकिन और कोइ धनादि कि याचना नहीं कि हैं । अग्नि देवता सम्बन्धी उपर्युक्त सूक्तों में ऋषि दीर्घतमस् ने कहीं भी कोई धन, रत्न, पुत्र-पौत्रादि और भौतिक समृद्धि कि लालसा, याचना या माँग नहीं कि हैं । अग्निदेव से केवल प्रकाश माँग ने वाला यह ऋषि दीर्घतमस् का उपर्युक्त सूक्तों का दर्शन इस दृष्टि से विशिष्ट प्रकार का देखा गया हैं । ऋग्वेद में कोई एक हि देवता का दर्शन इस प्रकार से भी हुआ करता था यह बात भी ऐसे सूक्तों से स्पष्ट होती हैं ।। पादटीप
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