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भारतीय नारी के बारे मे स्वामी विवेकानंद के विचार

“स्मृति आदि लिखकर, नियम-नीति से आबद्ध करके, इस देश के पुरुषो ने स्त्रियो को एकदम बच्चा पैदा करने की मशीन बना डाला है।“[1] स्वामी विवेकानंद के कहे गये शब्द सुनने मे तो बहोत अच्छे लगते है । हिन्दु नारी इसे सुनते ही उसकी वाग्जाल मे आ सक्ती है । लेकिन इन्हे पता नहीं कि स्वामी विवेकानंद के इस वाक्यो मे कथनी और करनी का अन्तर है । स्वामी विवेकानंद ने विधवा विवाह के बारे मे एक जगह कहा है कि, “आज घर घर इतनी अधिक विधवाए पाई जाने का मूल कारण बाल विवाह ही है, यदि बाल विवाहो कि संख्या घट जाए, तो विधवाओ की संख्या भी स्वयंमेव घट जाएगी।“[2] जब की ऐसा कहकर स्वामीजीने विधवाविवाह की समस्या का कोई समाधान नहीं बताया। विधवा की समस्या का समाधान पुनर्विवाह ही है। स्वामीजी इस बात को टाल रहे है और कहते है, “हमे बाल विवाह निराकरण, विधवाविवाह आदि सुधारो के संबंध मे अभी माथापच्ची नहीं करनी चाहिए।“[3] विवेकानंद ऐसा कहकर अपनी बात से मुकर जाते है। पहले बालविवाह निराकरण की बात करते है बाद मे उसमे अभी न पडने की सलाह भी देते है। शायद इस बात से भिन्न होने का कारण एक ये भी हो सक्ता है कि उनकी विचारधारा ही ऐसी थी। जैसे कि वो कहते है, “आर्यकन्याओ का विवाह जीवन मे एक ही बार होता है, और वे कभी संकल्प च्युत नहीं होती।“[4] यही वाक्य से हमे पता चलता है कि स्वामीजी कि विचारधारा विधवाओ के बारे मे क्या थी ?

स्वामी विवेकानंद ने विधवा के बारे मे समाधान भी कैसा विचित्र ढंग से बताया है। इसके लिए उन्होने दो बाते रखी है। (1) विधवा विवाह निम्न श्रेणी के लोगो मे प्रचलित है। (2) उच्च वर्णोमे साधारणत पुरुषो की अपेक्षा स्त्रियो की संख्या अधिक है, इसलिए विधवा पुनर्विवाह नहीं होता।

यहाँ स्वामीजी की पहली बात तो सही है, लेकिन दुसरी बात का समर्थन करते हुए कहते है कि, “यदि प्रत्येक कन्या का विवाह करना हो तो प्रत्येक के लिए पति प्राप्त करना असंभव सा ही है। फिर एक ही स्त्री को एक के बाद दुसरा, इस प्रकार अनेक पति कैसे मिल सक्ते है ? इसलिए समाज ने यह नियम कर दिया है कि, जो स्त्री एकबार पति प्राप्त कर चूकी है उसे दुसरी बार प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा। क्योंकि यदि वह ऐसा करे, तो एक अन्य कुमारी को बिना पति के ही रहना होगा।“[5]

स्वामीजीने जो दुसरी बात स्वर्णो मे पुरुषो के मुकाबले स्त्रियो की संख्या अधिक होने की बताई वो इस तरह हजम नहीं होती। क्योंकि उस समय या उससे पहले कन्या शिशु हत्या का प्रमाण सबसे ज्यादा उच्च वर्णो मे होता था। वो ही लोग बच्ची को जन्मते ही मार डालते थे। धर्मवीरजी के अनुसार कन्या शिशु हत्या का उल्लेख हमे 1789 मे सर जोनाथन डंकन[6] के लेख मे मिलता है। उनके हिसाब से राजपूतो मे कन्या शिशुओ की हत्या कई पीढियो से चलती आ रही है। दुसरा उल्लेख 1836 मे आजमगढ जिल्ले के अफसर थोमसन[7] के लेख मे मिलता है। उनके मुताबिक दस हजार राजपूत बिरादरी मे एक भी परिवार मे पुत्री नहीं थी। ये प्रथा सबसे ज्यादा चौहान राजपूत परिवारो मे प्रचलीत थी। तीसरा उल्लेख 1846 की जलंधर-दोआब[8] की जनगणना का है। जिसमे 2000 बेदी परिवारो मे एक भी लडकी नहीं मीली। चौथा उल्लेख मेजर वॉकरने[9] 1807 मे लिखे लेख मे मिलता है, कि गूजरात मे जाडेजा परिवार मे कन्या शिशु हत्या की प्रथा सबसे ज्यादा प्रचलित थी।

यदि स्वामी विवेकानंद के उपरोक्त तर्क को माना जाए तो हम ये कह सक्ते है कि, सबसे पहले उच्च वर्ण के कहलानेवाले ये राजपूत जातियो मे विधवा विवाह का प्रचलन शुरु हो जाना चाहिए था। क्योंकि उनके यहाँ स्त्रियो की संख्या पुरुषो की तुलना मे कम थी। वैसा तो वो लोग कर नहीं सक्ते थे। क्योकि समाज के जड बन्धनो मे बंधे थे। विधवा विवाह नहीं कर सक्ते थे पर विधवा की साथ छूपा संबंध रख सक्ते थे, या तो निम्न वर्ग की स्त्रियो को रखेल रख सक्ते थे।

दुसरा तर्क ये भी हम कर सक्ते है कि, उस समय पुरुष विधुर होता था तो कुंवारी कन्या से विवाह कर सक्ता था। पर स्त्री विधवा होती थी तो कुंवारे पुरुष के साथ तो नहीं पर विधुर पुरुष के साथ भी विवाह नहीं कर सक्ती थी।

यहाँ स्वामीजी को यह कहना चाहिए था कि विधुर पुरुष कुँवारी कन्या से विवाह नहीं कर सक्ता। वह अवैध और अपराध है। लेकिन स्वामीजी विधवा और विवाह के बारे मे क्या बोले ? वो तो खुद सन्यासी थे, इसलिए लोगो को अपनी तरह संन्यासी बनाना चाहते थे। वो कहते है, “बात यह है कि हिन्दु धर्म के अनुसार समाज संस्था का अंतिम आदर्श सन्यास ही है। इस सर्वोत्तम एवं पवित्रतम आदर्श की तुलना मे विवाह निम्न कोटि की चीज है।“[10]

इतना ही नहीं उससे भी आगे चलकर कहते है, “हमारा धर्म शिक्षा देता है कि विवाह बूरी चीज है औऱ वह कमजोरो के लिए है। यथार्थ मे धार्मिक स्त्री या पुरुष तो कभी विवाह ही नहीं करेगा। धार्मिक स्त्री कहती है, परमात्मा ने मूझे अधिक अच्छा अवसर दिया है। अत मूझे अब विवाह करने की क्या जरूरत है ? मै बस ईश्वर की पूजा-अर्चना करूं, किसी पुरुष से प्रेम करने की क्या जरूरत है ?”[11]

ऐसा नजरिया है स्वामी विवेकानंद का भारतीय नारी के बारे मे । वो तो भारतीय नारी को पाश्चात्य नारी की तुलना मे पति के पदचिह्नो पर चलनेवाली आदर्श नारी समझते है। वो पाश्चात्य और भारतीय नारी की तुलना करते हुए कहते है, “पाश्चात्य देश नारी मे बहुधा नारीत्व का सर्वथा अभाव दिखा। वे पुरुषो से होड लेने मे तल्लीन है। वे यान चलाती है, कार्यालयो मे कलम घिसती है। उच्च शिक्षा प्राप्त करती है। और सभी प्रकार के धंधे करती है। केवल भारतीय स्त्री मे ही नारी सुलभ लज्जा देखकर ह्रदय आनंदित होता है।“[12]

अब स्वामीजी के इस वाक्य को कहाँ और कैसे हम मान ले ? पाश्चात्य नारी अपने परिवार के लिए कमाती है तो उसमे उसका क्या कसूर ? कमाने से क्या वो निर्लज हो गई ? कमाती तो हमारे यहाँ निम्न वर्ग की नारीयाँ भी। तो क्या वो निर्लज हो गई ? अरे ! निर्लज तो वो होती है, जो घर मे से बाहर पाँव न रखते हुये भी कुछ ऐसा काम करती है।

स्वामी विवेकानंद ने आदर्श भारतीय नारी के उदाहरण के लिए सीताजी को चूना है। “भगवती सीताजी को पद पद पर यातनाए और कष्ट प्राप्त होते है। परंतुं उसके श्रीमुख से भगवान श्रीरामचन्द्र के प्रति एक भी कठोर शब्द नहीं निकलता, सब विपत्तिओ और कष्टो का वे कर्तव्य-बुद्धि से स्वागत करती है, और उसे भली भाँती निभाती है। उन्हे भयंकर अन्यायपूर्वक वन मे निर्वासित कर दिया जाता है। परंतुं उसके कारण उनके ह्रदय मे कटुता का लवलेश भी नहीं, यहीं सच्चा भारतीय आदर्श है।“[13]

संदर्भ सूचि

  1. भारतीय नारी, स्वामी विवेकानंद, 1997 (हिन्दी संस्करण – अनुवादक – श्री इन्द्रदेवसिंह आर्य) रामकृष्ण मठ, नागपुर, सोलहवा संस्करण, पृ.13
  2. भारतीय नारी, पृ.28
  3. भारतीय नारी, पृ.28
  4. भारतीय नारी, पृ.9
  5. भारतीय नारी, पृ.30
  6. स्त्री के लिए जगह, सं. राज किशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.आ.1994, पृ.104-05
  7. स्त्री के लिए जगह, पृ.105
  8. स्त्री के लिए जगह, पृ.106
  9. स्त्री के लिए जगह, पृ.107
  10. भारतीय नारी, पृ.24
  11. भारतीय नारी, पृ.70
  12. भारतीय नारी, पृ.46
  13. भारतीय नारी, पृ.2-3

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प्रा.डॉ.हिम्मत भालोडिया
आसि.प्रोफेसर, गुजराती,
सरकारी विनयन कॉलेज,
सेकरट-15, गांधीनगर

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