माटीकाम के कारीगर कुम्हार- परम्पारगत आजीविका आधारित उद्योग साहसिकतावृत्ति
माटी कहे कुम्हार से तू कां रूंथे मोय, इक दिन ऐसो आवेगो मैं रूंथूंगी तोय। भारतीय संस्कृति में वर्णित पंच महाभूतों में से एक है माटी। कुम्हार माटी के वे शिल्पकार अथवा दस्तकार हैं जो माटी से जीवनजरूरी वस्तुओं की रचना करके लोक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आये हैं। कई साहित्यकारों ने माटी के रंग में इनका सजीव चित्रण किया है। कुम्हारी कला मानव जीवन की खुशियों के साथ सीधा सरोकार रखती आयी है। दैनिक जरूरतों को पूरा करने हेतु विभिन्न आकार-प्रकार के वर्तन हों या दीपावली त्योहार के दीप अथवा शादी आदि सामाजिक-धार्मिक व सांस्कृतिक प्रसंग की शुद्धतापूर्ण जरूरतें आदि सभी में इनकी उपस्थिति दर्ज की जाती रही रही है। इनको तैयार करने की प्रक्रिया के हर चरण में तकनीकी कुशलता एवं प्रबंधकीय सोच की परिणति इस समाज के हुन्नर धारकों में दृष्टिगत होती रही है। इस सच को भी नहीं नकारा जा सकता कि कुम्हारी काम करने वाले समुदाय का सामाजिक-आर्थिक स्तर निम्न रहा है किन्तु वे स्थानीय आजीविका की मजबूत कड़ी के रूप में अडिग रहे हैं। इनके घर एवं कार्यस्थल सामान्य ग्रामीण व्यवस्था में गांव के बाहरी छोर पर देखे जाते रहे हैं जहाँ नजदीक से कच्चे माल अर्थात् मिट्टी की व्यवस्था करते रहे हैं। वर्तमान परिवर्तन- वर्तमान में इस व्यवस्था में काफी परिवर्तन देखने को मिलते हैं यथा- सामाजिक-आर्थिक प्रतिमानों में आमूलचूल परिवर्तन जिनके चलते अमीर वर्ग गांव के बीच से निकलकर सड़क के पास आने फार्म हाउस आदि पर निवास बनाने को प्रथमिकता देने लगा हालांकि अंदर का हिस्सा भी अपने पास रखा किन्तु इसके चलते जो जमीन कार्य हेतु अत्यन्त अल्प किमत पर इन्हें उपलब्ध थी उसमें कठिनाई उत्पन्न हुई है। अब एक गरीब कुम्हार के वश की बात नहीं है कि वह इस कार्य के लिए पर्याप्त जमीन की व्यवस्था कर सके। उसे जमीन किराये पर लेकर यह कार्य करना होता है किन्तु जमीन के दाम बढ़ते जाने से उसमें भी स्थायित्व खत्म होता जा रहा है क्योंकि वहाँ प्लोटिंग, फ्लेट अथवा ल की मांग आने से अल्प समय में ही वह जमीन खाली करनी होती है। यह कार्य ऐसा है जो जिसके लिए खुली जगह की भी आवश्यकता होती है जो गांव के मध्य मिलना संभव नहीं है। दूसरा खतरा इस कला के विकास और आगे ले जाने को लेकर है- इस तथ्य से हम इंकार नहीं कर सकते कि इस कला की उत्पादकता पर्यावरण को न्यूनतम क्षति पहुँचाने वाली है क्योंकि यह वापस मिट्टी में ही मिल जाता है। लेकिन इस समुदाय के लोग उच्च सामाजिक दर्जा प्राप्त करने हेतु अन्य कार्य, स्पर्धात्मक परीक्षा पास करके सरकारी नौकरी पाना तथा औद्योगिक क्षेत्र में कार्य करना आदि की ओर उन्मुख हुए हैं। वहीं उपभोक्तावादी जीवनशैली के अविराम बदलावों के चलते मानव जीवन में इनका स्थान घटता जा रहा है जबकि इसके चलते पारस्थितिकीय तंत्र विपरीत दिशा में प्रभावित हुआ है। माटीकाम हुन्नर का वारसागत इतिहास - माटीकाम के कारीगर अपनी कुशलता, चीवटता, रचनात्मकता आदि के लिए जाने जाते हैं। उनके पास पर्याप्त व्यावहारिक समझ (कोठासूझ) है कि किन किन बाबतों का किस प्रमाण में ध्यान रखा जाय, पड़े लिखे न होने के बावजूद गणित का भी बोध है, अभियांत्रिकी का विद्यार्थी न रहने के बावजूद विविध आकार-प्रकार की डिजाइन, टेक्नीक व कल्पनाशक्ति के अकूत बौद्धिक भंडार इनके पास रहे हैं तथापि यह समुदाय निम्नतम स्तर पर जीवनयापन को विविश है। औपचारिक शिक्षण के परिणाम स्वरूप इस समुदाय के युवा आर्थिक रूप से अधिक पोषणक्षम रोजगार की तलाश व महत्वांकाक्षा की सिद्धि में अपने परम्परागत हुन्नर को अलविदा सा कर चुके हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि इस गांव के प्रजापति समुदाय मे कोई भी कुम्हारी काम से जुड़ा हुआ नहीं है। फिर भी आज लगभग 25 कुम्हारी काम की इकाइयां इस गांव की सीमा में कार्यरत हैं जो मुख्यतः विभिन्न आकार के मटके बनाती हैं। इनमें कार्यरत कारीगर मालिक राज्य के पाटण जिले के निवासी है जो इस गांव से लगभग 150 कि.मी. दूर है। लगभग 10 वर्ष पहले इस गांव के बाहर की तरफ कुम्हारी काम की एक इकाई हुआ करती थी विगत सात वर्षों में इनकी संख्या 25 तक पहुँची वहीं विगत एक वर्ष में इनकी संख्या में घटने का क्रम प्रारम्भ हो चुका है आज वर्तमान में 18 इकाइयां कार्यरत हैं। कुम्हारी काम का रचनात्मक हुन्नर, लोगों की कला, आजीविका का लोक-आवश्यकता से जुड़ाव, स्थानिक प्रजापति समुदाय का इस कार्य से विलग होना, बाहर के लोगों द्वारा इसी गांव में इसी कार्य को आजीविका बनाकर कार्य करना तथा इस कार्य के फिर से बंद होने का क्रम शुरू होना आदि घटक अध्ययन करने हेतु आकर्षित करते हैं, उन कारणों की शोध के लिए प्रेरित करते है जो सामान्यरूप से अप्रत्याशित प्रतीत होते हैं। इन सबसे अलग प्रबंधन का विद्यार्थी होने के नाते हटकर इन लोगो की वैज्ञानिक पद्धति आधारित उत्पादन व्यवस्था को समझना तथा उनके पारम्परिक ज्ञान-विज्ञान को आधुनिक समाज के सामने लाना है जो सम्पोषित आजीविका व्यव्सथा की मजबूत कड़ी का प्रतिनिधित्व करते है। आजीविका मतलब जब तक यह कला जीवन निर्वाह का माध्यम रही तब संसाधनों की स्थिति व उपयोग की व्यवस्था क्या थीं और उसमें प्रोफेशनल लुक आने के बाद अथवा मह्त्तम नफाकारकता के केन्द्र में आने के पश्चात् संसाधनो पर क्या गुजर रही है इसका विश्लेषण भी जरूरी है। रांधेजा गांव गुजरात राज्य की राजधानी गांधीनगर से 10 कि.मी. की दूरी पर बसा एक समृद्ध गांव है इसका चयन मॉडल विलेज के रूप में विकसित किये जाने वाले गांव हेतु भी किया गया है। इस गांव में सभी जातियों के लोग निवास करते हैं- पटेल, बनिया, बुनकर, ठाकोर, दरबार, प्रजापति. चमार, नाई, वाघरी, सुनार, पशुपालक देसाई समुदाय आदि। जो अपने अपने परम्परागत व्यवसाय को समटे् हुए है। बड़ा गांव होने के कारण यह प्राचीन समय से व्यापार मंडी के रूप में प्रख्यात था। गांव में होस्पीटल, बैंक, प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षण के सरकारी स्कूलो के साथ साथ निजी शिक्षण संस्थान, विभिन्न विधाओं में उच्च शिक्षण हेतु गूजरात विद्यीठ का ग्रामीण परिसर जिसमे कृषि विज्ञान केन्द्र भी है, पोस्ट ऑफिस तथा सम्प्रेषण व परिवहन की सभी आधारभूत सुविधाएं हैं। माटीकाम हुन्नर में प्रोफेशनलिज्म और उसके प्रभाव- प्रबंधकीय जगत में प्रोफेशनलिज्म प्रगति की निशानी मानी जाती है जिसके चलते गुणात्मक एवं मात्रात्मक अभिवृद्धि सुनिश्चित होती है। इसके कारण हुन्नर विशेष को समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त होता है, वैयक्तिक आय में वृद्धि होती है, डिजाइन व उत्पाद को लेकर नवीन शोध होते हैं। किन्तु अवलोकन के दरम्यान यह पाया गया कि इससे हुन्नर धारकों के आजीविकालक्षी मूल्यों में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्य होते हैं, उनमें मानवीय मूल्यों की जगह शनैः शनैः आर्थिक मूल्यों की प्रधानता बढ़ जाती है जिससे समष्टि व सृष्टि दोनों विपरीत दिशा में प्रभावित होने लगते हैं। उत्पाद का स्वरूप स्थानीय व जरूरतमंद लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप न रहकर बजारलक्षी हो जाता है वे उत्पाद अस्तित्व में आने लगते हैं जिनकी बाहरी बजार में अधिक मांग है। स्थानीय जरूरतों को पूरा करने वाले सस्ते उत्पाद चलन से बाहर हो जाते है अर्थात् उनका स्थानीय जरूरतों की संतुष्टि से नाता टूट सा जाता है। वहीं दूसरी ओर कुदरती संसाधऩों का बेहताशा विदोहन शुरु हो जाता है जिससे सम्पोषित विकास की कड़ी कमजोर पड़ती जाती है। आसपास के गांवों से संसाधनो को रीतने और महत्तम लाभ कमाकर आगे से आगे निकल जाने की होड़ बढ़ती ही चली जाती है जिसे प्रोफेशनलिज्म व उद्योगसाहसिकता की भाषा में प्रगति या सफलता कहा जाता है। इसलिए आज आजीविका के स्वरूप, परिमाण एवं संसाधनो के जतन को लेकर स्थानीय आजीविका में प्रोफेशनलिज्म की उपस्थिति पर चिंतन अवश्य करना होगा। तय तो यह था कि प्रोफेशनलिज्म के द्वारा लोगों की कार्यकुशलता व कार्यक्षमता का विकास किया जायेगा, मानवीय मूल्य आधारित आचारसंहिता का विकास होगा जिससे आजीविका व्यवहारों में नैतिकता आयेगी और एक ऐसी सभ्यता का विकास होगा जो जंगलराज से मुक्त होगी अर्थात् जिसमें सभी को जीने के सुनियोजित अवसर प्राप्त हो सकेंगे। मानव संसाधन खरी रचनात्मकता को आत्मसात कर जीवन की बेहतर सार्थकता सिद्ध कर सकेगा। प्रोफेशनलिज्म का एक और ध्येय था कि कार्य विशेष को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाना जिसमें नफाकारकता व आय वृद्धि को लेकर इस अभिगम की सफलता सुनिश्चित मानी जाती है। इस स्थानीय आजीविका में प्रोफेशनलिज्म को लेकर दोष इस अभिगम का नहीं अपितु बदलती मानवीय मनोवृत्ति का है जो भौतिकतावादी संस्कृति और लालच, ईर्ष्या व अन्य दूषणों से अभिभूत हो चली है जिसने प्रोफेशनलिज्म की तस्वीर का रूख ही बदलकर रख दिया है। माटीकामः ग्रामीण उद्योग साहसिकता पारिवारिक व्यवसाय एवं स्वाभाविक गुरु सीखने की प्रक्रिया- ग्रामीण समाज के विशिष्ट समुदाय में यह कला पारिवारिक व्यवसाय के रूप में विकसित हुई है। माटीकाम प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में परिवार का लगभग हर सदस्य अपना योगदान सुनिश्चित करता है। परिवार के सदस्य काम करते करते अपने बड़ों से उत्पादकीय ज्ञान-विज्ञान व कार्यकुशलता के गूरू स्वाभाविक रूप से सीख लेते है कोई अतिरिक्त समय व धन का व्यय किए बिना। संशोधन क्षेत्र- वर्तमान विषय के संशोधन हेतु रांधेजा गावं को पसंद किया गया है। इसके पीछे दो कारण रहे हैं- यह स्थानीय आवश्यकता व स्थानीय संसाधन आधारित हुन्नर है जिसका संचालन विशिष्ट ग्रामीण समुदाय की कार्यकुशलता पर निर्भर है। दूसरा मुख्य कारण यह है कि लगभग 10 वर्ष पूर्व गांव में एक ही इकाई कार्यरत थी वो भी इस गांव के मूल निवासी नहीं थे जबकि आज लगभग 18 इकाइयां कार्यरत हैं जिनकी संख्या मध्य काल में 25 तक पहुँच चुका थी अर्थात् 7 एक इकाइयां अल्प समय में बंद हो गई। परम्परागत रूप से देखें तो एक गांव में एक या दो ही कुम्हार समुदाय के लोग माटी काम किया करते थे जो वहाँ के मूल निवासी होते थे और जो स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इस आजीविका का संचालन करते थे। इस व्यवस्था में वे बिना कोई मूल्य चुकाए कुदरती संसाधन - माटी एवं पकाने के लिए सूखी लकड़ी का उपयोग कर लिया करते थे। यहाँ प्राथमिक जानकारी के आधार पर संशोधक की जिज्ञासा के कई प्रश्नचिन्हात्मक बिंदु उभरकर सामने आये यथा- इस गावं के स्थानीय समुदाय से वर्तमान में कोई भी इस हुन्नर से क्यों नहीं जुड़ा है? अल्प समय में माटीकाम इकाइयों की संख्या एकदम से कैसे बढ़ी और क्यों मध्यकाल में इकाइयों को बंद होना पड़ा? आजीविका के स्वरूप और परिमाण में परिवर्तनों के फलस्वरूप सम्पोषित विकास की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा? प्रोफेशनलिज्म के दौर में लोगों की कार्यकुशलता व कार्यक्षमता एवं उसकी असरकारकता की क्या स्थिति बनी है?बाहर से आए लोगों ने रांधेजा गांव को ही क्यों पसंद किया? एक ही जगह में एक प्रकार के उद्यम विकसित होते जाने से स्थानीय संसाधनों की स्थिति पर क्या असर होता है? एक व्यावहारिक गणित- जिसमें स्थानीय संसाधनों का परिमाण---स्थानीय लोगों की आवश्यकताएं अथवा पड़ोसियों की जरूरतों की संतुष्टि तथा इनका उत्पादक की बुनियादी जरूरतों के परिमाण से सीधे संबंध की इस चक्रीय कड़ी का विश्लेषण वर्तमान में जरूरी प्रतीत होता है। समस्या कथन- प्रजापति समुदाय जिसका परम्परागत हुन्नर माटी काम माना जाता है, इस गांव में इस पेशे को छोड़ चुका है और बाहर के जिले के लोग आकर यह कार्य यहाँ पर कर रहे हैं। इस कला में पेशाकरण बढ़ने से कुदरती संसाधनों का शोषण उत्पादक की बुनियादी जरूरतों के अनुपात में कई गुना बढ़ा है। इस कला आधारित हुन्नर के संचालन में जो परिवार के तथा जो अन्य लोग लगे हुए हैं उनके पास संबंधित विविधलक्षी कुशलताएं, तकनीकी ज्ञान है, उनमें नवाचारों का पुट भी विद्यमान है, जिसके वैज्ञानिक-प्रबंधकीय आधार को समझने व सत्यापित करने की नितांत आवश्यकता है। यदि समय रहते इसको संवारने व संभालने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया तो यह हुन्नर आम आदमी की पहँच से बाहर हो जायेगा और फिर इसी ज्ञान को अर्जित करने हेतु अभियांत्रिकी विधा की तरह मँहगे संस्थानों में जाना होगा और जरूरतमंद वर्ग के लिए माटी की सुवास लुप्तप्राय बन जायेगी इसका प्रबंधन स्थानीय लोगों के हाथ से निकलकर चला जायेगा। इसी दृष्टि से सम्पोषित आजीविका प्रतिमान एवं परम्परागत ज्ञान विज्ञान के पटल पर यह संशोधन विषय वर्तमान व भावी उपादेयता के साथ प्रासंगिक बन जाता है। माटीकाम के तकनीकी-प्रोद्योगिकीय आयाम- (तकनीक का विकास, उपयोग एवं नियंत्रण तथा मैन्टीनेन्स स्वयं के नियंत्रण में - एप्रोप्रिएट टेक्नोलोजी) योग्य माटी की पहचान, मिट्टी में अन्य मिट्टी के मिलाने के अनुपात का तकनीकी ज्ञान, मिट्टी तैयार करने (भिगाने) हेतु एक ढांचा निर्मित करना, कितने समय तक और कितने पानी के साथ भिगाए रखना है इसका बोध, माटी की लोचशीलता तथा बनाने वाले वर्तन की प्रकृति के अनुरूप माटी के गुल्ले का आकार नक्की करना जो एक बार में चाक पर रखा जाता है। चाक की गति के साथ मिट्टी के गुल्ले को आकार देना (सधी हुई उंगलियों की कारीगरी) (अर्धनिर्मित माल के रूप में), ठठेरे का कार्य- अर्धनिर्मित वस्तु को सावधानी के साथ पीट पीट कर अंतिम स्वरूप प्रदान करने का वैज्ञानिक-टेक्नीकल व प्रबंधकीय अभिज्ञान, सुखाने की वैज्ञानिक पद्धति का ज्ञान, वर्तन पकाने की छोटी बड़ी भट्टी बनाने का ज्ञान, उत्पादन व्यवस्था के संचालन (जगह का चयन, ले-आउट की रचना, नये उत्पाद का विकास रचनात्मकता के साथ, क्षमता निर्धारण, इन्वेन्ट्री मेनेजमेंट, गुणवत्ता निंयन्त्रण, उत्पादन की मात्रा के संबंध में निर्णय लेने के दायरे तथा सम्पोषितता का विचार), मार्केटिंग की कुशलताओं का ज्ञान। यह उद्योग वर्ष में 7-8 महीने चलता है सिर्फ बरसात के समय बंद रहता है। वर्तमान मांग के अनुसार उत्पादन के अलावा सर्दियों में गर्मी के मौसम की मांग को पूरा करने के लिए उत्पादन चालू रखा जाता है।
संशोधन अध्ययन के उद्देश्य-
समंक संग्रहण हेतु प्राथमिक एवं द्वितीयक दोनों प्रकार के स्रोतों का उपयोग किया गया है। प्रथमिक स्रोतों में माटी काम करने वाले उत्तरदाताओं का समावेश किया गया है जबकि द्वितीयक स्रोतों में इस कार्य से जुड़े अनुसंधानों व अनुभवों को एकीकृत किया गया है। सूचना एकत्रीकरण हेतु अनुसूची का उपयोग करके साक्षात्कार किया गया है जिसमें अवलोकन विधि का भी उपयोग किया गया है। समंक विश्लेषण हेतु संकेतीकरण, सारणीकरण व सांख्यकीय पद्धतियों का उपयोग किया गया है तथा विश्लेषण सो प्राप्त परिणामों के आधार पर सामान्यीकरण किया गया है। माटीकाम उद्योग के संदर्भ में...थोड़ासामाटीकाम वैश्विक पटल पर विकसित मानव की प्राचीन कला है जिसमें उसने सृजनात्मकता व तकनीकों का विकास कर मानवीय समुदाय को सभ्यता की और ले जाने वाली आवश्यकताओं की संतुष्टि की है। जब मिट्टी इन हुन्नरधारकों की उंगलियों के इशारे पर नाचते चाक पर मन चाहा आकार लेती है तो विभिन्न मानवीय कल्पनाएं व सृजन साकार हो उठते हैं। चाक और उंगलियों का संयोजन वैज्ञानिक सोच पर संचालित होता है। उनके परम्पारगत ज्ञान-विज्ञान का दर्शन माटीकाम कला की विविध प्रक्रियाओं में होता है। मिट्टी की पसंदगी से लेकर पकाने व व्यवस्थित जमाने के कार्य तक उनकी कला का लोहा मानना पड़ता है। कुम्हार जिस जगह मिट्टी से विविध वस्तुएं बनाता है उसे स्थानीय भाषा में"कुम्हारवाडा" कहा जाता है। तैयार मिट्टी से वर्तन विशेष की प्रकृति एवं जरूरत के अनुसार पिंडी बाँधना, कभी सीधे चाक पर ही अंतिम आकार देना तो किसी वस्तु को कई प्रक्रियाओं से गुजार कर अंतिम स्वरूप प्रदान करना इनकी सिद्ध हस्त कला का उदाहरण है। बर्तनों व वस्तुओं को पकाने हेतु ये विभिन्न आकार के "निमाड़े" या भट्टे स्वयं बनाते हैं ताप को नियंत्रित करने हेतु उसकी ईंटों पर मिट्टी की लिपाई भी करते हैं यहाँ अनुभवी हाथ और अभ्यस्त आँखे वस्तुओं की संतुलित सिकाई को अंतिम स्वरूप प्रदान करने में मदद करती है। प्रदेश विशेष में उपलब्ध सामग्री के अनुसार माटी में विविध वस्तुओं का मिश्रण किया जाता है जिससे विस्तार विशेष में निर्मित वस्तु की लाक्षणिकता दूसरों से प्रथक प्रकट होने लगती है। चाक पर आरम्भिक आकार पा चुके वर्तनों को उपयोग योग्य स्वरूप में लाने हेतु उन्हें हाथ से "घाट" अथवा ओप प्रदान किया जाता है। ठठेरे की प्रक्रिया में सधे हाथों से हस्तचलित साधन द्वारा पीट पीट कर मिट्टी में रही हुई हवा निकालकर बर्तन के आकार में वृद्धि की जाती है इस प्रक्रिया को वेजिंग कहा जाता है। इसके कारण ही मिट्टी के पिंड में समान रूप से नमी का प्रसार होता है। इसके पश्चात बर्तनों को आग में तपाकर सुखाया-पकाया जाता है। जब इन वस्तुओं में नमी का प्रमाण शून्य हो जाता है तब ये हड्डी जैसी (बॉन ड्रॉइ) सख्त हो जाती हैं। जिन वस्तुओं को सुखाया नहीं जाता उन्हें ग्रीनवेयर कहा जाता है। बर्तनों को चमड़े के द्वारा भी सुखाया जाता है जब बर्तन में नमी का प्रमाण 15 प्रतिशत जितना शेष हो। मिट्टी के वर्तनों में काटने व जोड़ने के कार्य भी इसी चरण में किए जाते हैं। आकार देने की पद्धतियां-
उत्तरदाताओं की सामान्य जानकारी- इस व्यवसाय में 25 - 55 वर्ष तक के उत्तरदाता संलग्न हैं किन्तु 25-44 वर्ष के वर्ग में लगभग 66 प्रतिशत कारीगर आ जाते हैं। सभी कारीगर उत्तर गुजरात के जिले पाटण, महेसाणा, बनासकांठा और बहुचराजी विस्तार से हैं जो रांधेजा गाम से 100-150 कि.मी. दूर हैं। इसमें 79 प्रतिशत हिन्दू तथा 21 प्रतिशत मुसलमान हैं। 15 प्रतिशत उत्तरदाताओं को छोड़कर समस्त उत्तरदाता शिक्षित हैं प्राथमिक से माध्यमिक तक। 52 प्रतिशत व्यक्तिओं के पास मात्र 100 गज रहने की जगह है जबकि 40 प्रतिशत के पास 150 गज। अधिकांश लोगों को 50-75 गज जगह माटी काम करने के लिए चाहिए होती है जबकि बर्तनों को पकाने के लिए लगभग 50 गज यह निर्भर करता निमाडों के आकार व संख्या तथा व्यव्साय विस्तार की नीति के आधार पर। उत्तरदाताओं में विभक्त परिवार प्रथा अधिक है। 68 प्रतिशत उत्तरदाताओं के परिवार में 5-8 सदस्य हैं जबकि शेष के 2-4 अथवा फिर 9 से अधिक। जिनके परिवार में कम सदस्य हैं वे ही बाहर से मजदूर बुलाते हैं। कुम्हारी कार्य करने के लिए 90 प्रतिशत उत्तरदाता किराये की जमीन रखते हैं। जो पुराने कुम्हार हैं मात्र उनके पास ही अपनी खुद की जमीन है। 58 प्रतिशत उत्तरदाताओं के यहाँ बर्तन पकाने के बड़े निमाड़े हैं जबकि 37 प्रतिशत छोटे और बड़े दोनों ही प्रकार के निमाड़े रखते हैं। सभी उत्तरदाताओं के पास कच्चा माल रखने की पर्याप्त जगह एवं मोटर से चलने वाले चाक हैं। एक मोटर में दो या अधिक चाक एक साथ चलाते हैं। माल को बाहर बेचने ले जाने के लिए ट्रांसपोर्टेशन के साधन 90 लोग किराए पर लेते हैं जबकि शेष के पास अपने साधन हैं। माटीकाम से जुड़ी विशिष्ट जानकारी आधारित निष्कर्ष निम्न लिखित हैं- मिट्टी काम की प्रक्रिया से सम्बद्ध फोटो गेलरी अच्छी मिट्टी लाकर भिगोना भिगोने के बाद उसे रूंथना और उसके एक समान पिंड बनाना पिंड से आकार देने के लिए चाक पर रखना और वर्तन गढ़ना कच्ची वस्तुओं को उपयोग योग्य आकार में लाने हेतु प्रयुक्त साधन थापा आदि थापा के साथ काम कम करता कारीगर एवं वर्तन को पकाने हेतु तैयार निमाड़ा बर्तन पकाने हेतु ईंधन संग्रहण एवं तैयार मटको रखने की कला तैयार व बिगड़े हुए मटके संदर्भ-
*************************************************** डॉ. लोकेश जैन |
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