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श्रीमद् भागवद पुराणमें निरुपित अवतारों का पृथक्करण-एक अभ्यास ।



श्रीमद् भागवद में अवतारों के बारे में विस्तार से विवरण मिलता है । उसके प्रस्तुतिकरण के विवेचन पद्धति में प्राचीन प्रचलित मान्यताओं के अलावा तत्कालिन भागवत सम्प्रदायों में प्रचलित तथ्यों को भी स्थान मिला है । श्रीमद् भागवत के प्रथम स्कन्ध में कहा गया है कि – ‘सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्माने लोक के निर्माण कि ईच्छा से सोलह कलाओं से युक्त रूप ग्रहण किया ।’ भगवान का यही पुरुषाकार रूप एक ओर समस्त लोक के स्रष्टा के रूप में है, तो दुसरी ओर यही पुरुषरूप को नारयण स्वरूप कहा गया है । जो अनेकानेक अवतारों का अक्षय भण्डार है । इसी परमात्मा के अंशो से सभी अवतारों की उत्पत्ति हुइ है । और इस रूप के विविध अंशो से देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य इत्यादि योनियों का भी सृजन हुआ है1 । जीस तरह विशाल सरोवर में से छोटे-छोटे हजारों प्रवाह निकलते है, उसी प्रकार सत्वगुण से भरे श्रीहरि के द्वारा असंख्य अवतार हुए है2 ।

श्रीमद् भागवत में वर्णित इस लीलावतारों के नाम और संख्या के बारे में भागवतकार हि एकमत नहि है । अर्थात् भागवत में ही अवतारों की संख्या कहीं पर नौ बताई गई है तो कहीं पर चौदह बताई गई है, कहीं पर इस की संख्या बीस है तो कहीं पर बाईस या चौबीस पाई जाती है । जैसे कि – (1) सनकादि यानि कि सनक,सनन्दन,सनातन और सनत्कुमार (2) वराह (3) नारद (4) नर-नारायण (5) कपिल (6) दत्तत्रेय (7) यज्ञ (8) ऋषभ (9) पृथुन्वेन्य (10) मत्स्य (11) कमठ-कूर्म (12) धन्वन्तरी (13) मोहिनी (14) नरसिंह (15) वामन (16) परशुराम (17) पराशर व्यास (18) राम (19) बलराम (20) कृष्ण (21) बुद्ध (22) कल्कि3 ।

इस तरह भागवत के प्रथम स्कंध में कुल बाईस अवतरों की बात कि गई है । इन अवतारों में किसी ने ‘ब्रह्म’ और ‘मनु’ को सामिल करके अवतारों की संख्या चौबीस बताई है ।

इसके अलावा आगे श्रीमद् भागवत में चौबीस अवतारों का भी निरूपण मिलता है । जैसे कि - (1) वराह (2) सुयज्ञ (3) कपिल (4) दत्त (5) सनकादि यानि कि सनक,सनन्दन,सनातन और सनत्कुमार कपिल (6) नर-नारायण (7) धृव को धृव गति देनेवाले श्रीहरि (8) वेन का पुत्र पृथु (9) ऋषभ (10) हयग्रीव (11) मत्स्य (12) कच्छप (13) नृसिंह (14) गजेन्द्र मोक्ष दाता-हरि (15) वामन (16) हंस (17) मनु वंशधर (18) धन्वन्तरि (19) परशुराम (20) राम (21) कृष्ण (22) व्यास (23) बुद्ध (24) कल्कि4 ।

उपरांत श्रीमद् भागवत में चौदह अवतार भी गिनाये गये है । जैसे कि - (1) मत्स्य (2) हयशीर्ष (3) कच्छप (4) वराह (5) नृसिंह (6) वामन (7) भृगुपति-परशुराम (8) रघुवर्य (9) वासुदेव (10) संकर्षण (11) प्रद्युम्न (12) अनिरूद्ध (13) बुद्ध (14) कल्कि5 ।

तो इसी स्कंध के द्वितीय अध्याय के में भगवान के नौ अवतार बताये गये है । जैसे कि - (1) मत्स्य (2) अश्व (3) कच्छप (4) नृसिंह (5) वराह (6) हंस (7) क्षत्रिय-राम (8) ब्राह्मण-परशुराम (9) देव-वामन ।

प्रस्तुत शोधपत्र में इस अवतारों को विविध द्दष्टिकोण से पृथक्करण (वर्गीकरण) करने का उपक्रम है ।

सबसे पहले इन सभी अवतारों को तीन वर्गो में वर्गीकृत कर सकते है । जैसे कि -

  1. स्थानगत रूप
  2. कालगत रूप
  3. कार्यगत रूप

  1. स्थानगत रूप :-
    अवतारों का स्थानीय विशेषता के आधार पर किया गया पृथक्करण स्थानगत है । भागवत के दसम स्कंध के तृतीय अध्याय में वर्णित दस अवतारों का वल्लभाचार्यजी ने इस प्रकार से पृथक्करण किया है ।

    (अ) जलजा :- वल्लभाचार्यजी ने मत्स्य, कूर्म, और हयग्रीव को जलजा अर्थात् जलमें उत्त्पन्न होने वाले कहें है । (ब) वनजा :- नृसिंह, वराह और हंस को वनजा वन में उत्त्पन्न होने वाले कहें है । और (ड) लोकजा :- वामन,परशुरम और राम को लोकजा अर्थात् लोकमें उत्त्पन्न होने वाले अवतार माने गये है6 ।

    श्रीमद् भागवत में पृथ्वी के सात द्वीपों और प्रत्येक द्वीप को वर्षो में विभक्त किया गया है । उसमें से जम्बुद्वीप समग्र द्वीपो के मध्य में कमल के दण्ड की तरह खडा है7 । श्रीमद् भागवत में जम्बुद्वीप को इलावृत, भद्राश्व, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, हिरण्यमय, कुरु, किम्पुरुष, और भारतवर्ष इस प्रकार नौ वर्षो में विभाजित किया है । श्रीमद् भागवतानुसार इन वर्षो में परमपुरुष भगवान नारयण भक्तो पर अनुग्रह करने हेतु विभिन्न स्वरूप धारण करते है । जैसे कि इलावृत्त में शंकर और वासुदेव व्युह, भद्राश्व में हयग्रीव, हरिवर्ष में नृसिंह, केतुमाल में लक्ष्मी, कामदेवादि रम्यक में मत्स्य, हिरण्यमय में कूर्म, कुरुवर्ष में वराह, किम्पुरुष में श्री राम, और भारतवर्ष में नर-नारायण के रूप में निवास करते है8 ।

  2. कालगत रूप :-
    कालगत अवतारों को यहां चार वर्गो में वर्गीकृत किया है । जैसे कि –

    (अ) कालावतार :- कालावतारों में काल के व्यापक रूपों को प्रस्तुत करके उसमें होने वाले अवतार रूपों का उल्लेख हुआ है । इस तरह श्रीमद् भागवत के तृतीय स्कन्धमें कपिल-देवहूति के संवाद में कहा गया है कि – ‘ परब्रह्म के अद्भूत प्रभावयुक्त जागतिक पदार्थो के वैचित्र्य का कारण काल है । प्रकृति और पुरुष उसके हि रूप है । और वह उसके प्रकृति – पुरुष से अलग है9 ।’ आगे भी कहा गया है कि – ‘ विष्णु हि काल है10 ।’ वै से हि श्रीमद् भागवत के द्वारा प्रतिपादित सांख्यवादी अवतार सृष्टि के विकास में सक्रिय तत्त्व काल हि है । क्योंकि महदादि 23 तत्त्वो को सक्रिय करने हेतु स्वयं भगवान उसमें काल के रूप में प्रविष्ट होते है11 ।

    (ब) कल्पावतार :- कल्पावतार में पौराणिक कालगणना के अनुसार चौदह मन्वन्तरों का एक कल्प माना गया है । कल्प यानि कि सृष्टि क अन्त अर्थात् प्रलय । इस प्रकार समग्र सृष्टि के दरम्यान होने वाले अलग-अलग अवतारों में होता है । (क) मन्वन्तरावतार :- प्रत्येक मन्वन्तरों में होने वाले अवतारों को मन्वन्तरावतार कहा गया है । श्रीमद् भागवत में चौदह मन्वन्तरों के साथ चौदह अवतारों क उल्लेख हुआ है । तदनुसार (1) स्वायम्भुव (2) स्वारोचिष (3) उत्तम (4) तामस (5) रैवत (6) चाक्षुस (7) वैवस्वत (8) सावर्णि (9) दक्षसावर्णि (10) ब्रह्मसावर्णि (11) धर्मसावर्णि (12) रुद्रसावर्णि (13) देवसावर्णि और (14) इन्द्रसावर्णि । इन चौदह मनु के समयमें क्रमशः (1) यज्ञ (2) विभु (3) सत्यसेन (4) हरि (5) वैकुण्ठ (6) अजित (7) वामन (8) सर्वभौम (9) ऋषभ (10) विश्वकसेन (11) धर्मसेतु (12) स्वधाम (13) योगेश्वर और (14) ब्रृहद्भानु यह चौदह मन्वन्तरावतार इस प्रकार कहे गये है12 ।

    (ड) युगावतार :- युगावतारों में प्रत्येक युग में अर्थात् सत्, त्रेता, द्वापर, और कलि इन चारों युगो में होने वाले कहे गये है । जीस का वर्णन भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में उपलब्ध है13 ।
  3. कार्यगत रूप :-
    श्रीमद् भागवत में प्रचलित अवतारों के स्थानगत और कालगत पृथक्करण के बाद यहां कर्यगत रूप अवतार के कार्य की द्दष्टि से विभिन्न पांच रूप पाये जाते है । जैसे कि - (1) पूर्ण (2) अंश (3) कला (4) विभूति और (5) आवेश ।

रूपगोस्वामी ने ‘लघुभागवतामृत’ में पूर्णावतार के बारे में कहा है कि – ‘ जीस में सर्वदा अल्पमात्रा में शक्ति का विकास होता है उसे अशं, और जीस में स्वेच्छानुसार विविध शक्तियों का विकास होता है, उसे पूर्ण या अंशी कहा गया है14 ’ इस प्रकार कला, विभूति, आवेश, इत्यादि रूप भी क्रमशः अंश के हि विशिष्ट मात्रात्मक बोध का सूचन करते है ।

श्रीमद् भागवत में अंशावतार के बारे में स्पष्टता करते हुए कहा गया है कि – ‘जीस में तेज, श्री, ह्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, परक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ है, उसे भगवान क अंश कहा गया है15 ।’

श्रीमद् भागवतकार अनुसार श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य अवतारों को अंश अथवा कलावतार माने गये है16 । इस के बारे में विशेष स्पष्टता करते हुए कहते है कि – ‘ श्रीमद् भागवत में ऋषि, मुनि, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र, इत्यादि महान और शक्तिमान व्यक्ति श्रीहरि के कल्पावतार कहे गये है । हंस, दत्तात्रय, सनत्कुमार, ऋषभ, आदि को अंशावतार कहे गये है17 ।’ श्रीमद् भागवत में शेषनाग को कलावतार कहा गया है ।

श्री मद् भागवत में अंश और कला की अपेक्षा आवेशावतार का विस्तृत वर्णन द्दष्टिगोचर नहीं होता । किन्तु वल्लभाचार्यजी ने ‘तत्वार्थदीप निबन्ध’ और ‘सुबोधिनी टीका’ में कुछ कुछ जगहों पर आवेशावतार का चिंतन किया है । उनके मतानुसार इन अवतारों में प्रयोजन के अनुरूप अथवा कार्यानुरूप क्रियाशक्ति या ज्ञानशक्ति का विभिन्न अवतारों में आविर्भाव किं वा आवेश होता रहता है । जैसे कि वराह इत्यादि बलशालि कार्य और दत्तव्यासादि रूपों में ज्ञानशालि कार्य की प्रधानता प्राप्त होति है18 । उन्हों ने ‘तत्वार्थदीप निबन्ध’ में सभी मन्वन्तरों के देवताओं को आवेश रूप में गृहित किया है19 ।

श्रीवल्लभाचार्यजी के साहित्य में आवेश रूपों क विस्तार आवेशावतार के उद्गमस्थल वैष्णवतंत्र के आधार पर किया गया है । जो कि ‘तन्त्र निर्णयो वैष्णव तन्त्रे निरूपितः’ इस रूप में स्पष्ट होता है ।

इस अवतारवाद का वर्गीकरण उत्क्रान्तिवाद की द्दष्टि से भी किया जा सकता है । ईन्ग्लेण्ड के वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने भी उन्नीसवीं सदी में उत्क्रान्तिवाद-विकासवाद का सिद्धान्त स्थापित कीया था । जो ‘थीयरी ओफ ईवोल्युसन’ के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि के विषय में विकासवाद का तात्पर्य यह है कि सबसे पहले बुद्धिविहीन एककोषीय छोटे-छोटे प्राणी जल में उत्पन्न हुए । जो कि ‘अमीबा’ के नाम से पहचाने गये । उसके बाद जल और स्थल में रहनेवाले प्राणीयों क विकास हुआ और अन्ततः स्थल पर रहनेवाले बुद्धियुक्त मनुष्यो का विकास हुआ ।

इस के आधार पर यदि अवतारवाद कि समीक्षा करते है तो जलीय प्राणीयों का प्रतीक मत्स्यावतार है क्योंकि मछली केवल जल में ही रह सकती है । कूर्मावतार जल और स्थल दोनों पर रहनेवाले प्राणी का प्रतीक है । क्योंकि कछुआ जल-स्थल दोनो पर रह सकता है । वराह अवतार स्थलीय प्राणी का प्रतिनिधित्व करता है जो केवल स्थल पर ही जीवन व्यतित कर सकता है । उसके बाद ऐसे प्राणी की कल्पना है जिसमें पशुत्व और मनुष्यत्व दोनो क मिश्रण है । जैसे कि नृसिंह अवतार । वामन अवतार के बाद मनुष्य का भयानक, रक्तपिपासु रूप सामने आता है । जिसका प्रतिनिधित्व परशुराम करते है । मानव जीवन की सभी मर्यादा, सभ्यता एवं संस्कृति का जिसमें विकास हुआ है वह मर्यादा पुरूषोत्तम राम है । उसी प्रकार समग्र ऐश्वर्य, वीर्य, ज्ञान, यश, श्री, और वैराग्य का प्रतिनिधित्व करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण है । बुद्ध करुणा के आधिक्य का प्रतिनिधित्व करते है तो कल्कि के अवतार में मानव के अकृप रूप का साक्षात्कार हुआ है ।

पादटीप :-

  1. ऐतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् । यस्याशाँशेन सृज्यते देवतिर्यग्नरादयः ॥ भागवत 1-3-5.
  2. अवतारा ह्यसंख्येया हरेः सत्वेनिधेर्द्विजाः । यथा विदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः ॥ भागवत 1-3-26.
  3. श्रीमद् भागवत 1-3-6 से 25 तः ।
  4. श्रीमद् भागवत 2-7-1 से 38 तः, 5. श्रीमद् भागवत 10-40 17 से 22 तः,
  5. ભાગવત પુરાણ 10-2-40 પરની સુબોધિની ટીકામાંથી,
  6. श्रीमद्भागवत 5-16-5 8. श्रीमद्भागवत 5/17-18-19
  7. एतद् भगवतो रूपं ब्रह्मणः परमात्मनः । परं प्रधानं पुरूषं देवं कर्मं विचेष्टितम् ॥ रूपभेदास्पदं दिव्यं काल इत्यभिधीयते । भूतानां महद्दादिनां यतो भिन्नद्दशां भयम् ॥ श्रीमद्भागवत 3-29-36 एवं 37.
  8. कालः कलयतां प्रभुः । श्रीमद्भागवत 3-29-38
  9. श्रीमद्भागवत 3-6-1 से 4 तः ।
  10. श्रीमद्भागवत 8-1-5 से 30 तः, 8-5-4 से 9 तः और 8-13- 17 से 35 तः ।
  11. श्रीमद्भागवत 11- 5 - 20 से 32 तः ।
  12. अंशत्वं नाम शक्तीनां सदाल्पांश प्रकाशिता । पूर्णत्वं च स्वेच्छयैव नाना शक्ति प्रकाशिता ॥ - मध्यकालिन साहित्य में अवतारवाद पृ. – 370.
  13. तेजः श्रीः किर्तीरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः । वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मे अंशकः ॥ श्रीमद्भागवत 11-16-40.
  14. एते चांशकला पुंसः । श्रीमद्भागवत 1-3-38 ।
  15. श्रीमद्भागवत 10-4-24 ।
  16. શ્રીમદ્ભાગવતના 1-3-6 ઉપરની સુબોધિની ટીકા.
  17. ‘તત્વાર્થનિબંધ’, ભાગવતાર્થ પ્રકરણ 8/79.

संदर्भ पुस्तक :-

  1. भागवत पुराण । प्रकाशन : पं श्रीराम शर्मा आचार्य संस्कृति संस्थान - बरेली । (प्रथम संस्करण – 1968)
  2. मध्यकालीन साहित्य में अवतारवाद । डॉ. कपिलदेव पाण्डेय
    प्रकाशन : चौखंबा विद्याभवन, वाराणसी । (प्रथम संस्करण वि.सं. 2020)
  3. वैष्णव पुराणोमां अवतारवाद विमर्श- समीक्षात्मक अध्ययन (गुजराती में)
    प्रजापति दिनेशकुमार ईश्वरलाल प्रकाशन : पार्श्व प्रकाशन – अमदावाद (प्रथम आवृति 2005)
  4. अवतारो अने अवतारवाद (गुजराती)
    लेखक- डॉ. डॉलरराय मांकड
    प्रकाशन : शेठ भो.जे. विद्या भवन अमदावाद. (प्रथम आवृति - 1978)

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प्रा. डॉ. मनोजकुमार एल. प्रजापति ।
एम. एन. कॉलेज - विसनगर ।

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