उत्तर रामचरित में एकालाप
राम के उत्तरकालीन जीवन पर आधारित उत्तररामचरित सात अंको का नाटक है तथा भवभूति की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है । पात्रों की संख्या अन्य दो नाटकों की अपेक्षा कम है । यह भाव-प्रधान रूपक है तथा करुण रस की प्रधानता है । इसमें प्राप्त एकालाप को हम मनोभिव्यक्ति वर्णन तथा विलाप में वर्गीकृत कर सकते हैं । स्मृति प्रधान एकालाप के भी उदाहरण प्राप्त होते हैं ।
उत्तररामचरित में मुख्य पात्र राम हैं तथा नाटक का लगभग सम्पूर्ण अंश इसी चरित्र से आच्छादित है । मनोभावों के सूचक एकालाप से उनका चरित्र हमारे सामने सुस्पष्ट होता है । वे मर्यादित नायक हैं तथा अपने भावों पर उन्हें नियन्त्रण है । वे सीता को प्राणों से भी अधिक चाहते हैं, किन्तु उसे सबके सामने प्रकट नहीं करते । प्रथम अंक में कठोर-गर्भकलान्त सीता उनकी भुजाओं को उपाधान बनाकर सो रही है। उनका प्रेम इन शब्दों में प्रकट होता है -
इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवर्तिर्नययो-
रसावस्था: स्पर्शो वपुषि बहुलश्चन्द्रनरस: ।
अयं बाहु: कण्ठे शिशिरमसृणो मौक्तिकसर:
किमस्या न प्रेयो यदि परमसहस्तु विरह: ॥38
जो उन्हें असह्य है वही विरह प्राप्त होने पर उनकी दशा शोचनीय हो उठती है । इसी प्रसंग में आगे राम ने आदर्श दाम्पत्य जीवन की सुन्दर परिभाषा दी है, जिसका मूर्त रूप उनकी तथा सीता की जोडी है ।1 तभी दुर्मूख के मुँह से प्रजा में प्रचलित सीता सम्बन्धी प्रवाद को सुनकर वे अत्यन्त दु:खी हो उठते हैं । फिर भी उन्हे अपने कर्तव्य का स्मरण हो आता है, क्योंकि वसिष्ठ ने लोकरंजन को ही सर्वोपरि मानने की आज्ञा दी है ।2 सीता परित्याग का निश्चय कर वे निरपराधिनी सीता को अपने अपवित्र स्पर्श से दूर कर देते हैं, क्योंकि वे स्वयं को ऐसा विषवृक्ष मानते हैं जिसे सीता चन्दनवृक्ष समझ कर आश्रय लिए हुए हैं -
अपूर्वकर्म चण्डालमयि मुग्धे विमुञ्च माम् ।
श्रितासि चन्दनभ्रान्त्वा दुर्विपाकं विषद्रुमम् ॥46॥
फिर वह अरुन्धती, वशिष्ठ, विश्वामित्र, अग्नि, पृथ्वी, माता-पिता, सुग्रीव, हनुमान, विभीषण, त्रिजटा का आह्वान करते हैं और अपना तिरस्कार करते हैं । राम का उपर्युक्त कथन उनके गहरे अन्तर्दन्द्द, अनुताप और अपराधबोध की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ एकालाप की मनोभावप्रवणता का अच्छा उदाहरण है । इस कथन में राम अपने भीतर के विषाद में डूबकर अन्तर्मर्म को प्रकट कर देते हैं । वस्तुत: संस्कृत नाटकों में इतने विस्तृत और प्रभावपूर्ण एकालाप कम ही है ।
राम के चले जाने पर सीता उठ बैठती है । यहाँ सीता की एकोक्ति से उनके मुग्ध सरल स्वभाव की अभित्यक्ति होती है ।3 तृतीय अंक में शोक की अधिकता से राम वासन्ती के सम्मुख पहलीबार अपने नगर-वासियों को, उन्हे सीता-त्याग के लिए विवश करने पर उपालम्भ देते है, उनका प्राणान्तक दु:ख उनके शब्दों में मूर्त हो उठता है ।4 चतुर्थ अंक में पिता जनक को अपनी पुत्री सीता का संताप पराक तथा सान्तपन आदि तप नियमों से शोषित शरीर में भी दु:ख दे रहा है।5 आगे इसी अंक में उनके अयोध्यावासियों पर अत्यन्त क्रोध आता हैं, जिसके कारण सीता का परित्याग हुआ। वे धनुष उठाकर उन्हें नष्ट करना चाहते हैं, राम की क्षिप्रकारिता पर वे क्षुब्ध हैं। फिर, वे अपने क्षमाशील स्वभाव के कारण उन्हें क्षमा कर देते हैं।6 करुण रस-प्रधान नाटक होने के कारण मुख्यत: दु:ख के भाव अधिक व्यक्त हुए हैं। चतुर्थ अंक के अन्त में लव के प्रादुर्भाव से भाव-परिवर्तन होता है। राम की सेना के गर्वयुक्त वचनों पर उसका क्षत्रियोचित तेज जाग उठता है।7 पंचम अंक में सेना द्वारा चारों ओर से घेरे जाने पर वह अत्यन्त क्रोधित हो उठता है।8 चन्द्रकेतु को सामने देख उसके मन में विचित्र अवस्था उत्पन्न होती है-
यथेन्दावानन्दं व्रजति समुपोढे: कुमुदनी
तथैवास्मिन्दृष्टिर्मम कलहकाम: पुनरयम्।
रणत्कार क्रूरे क्वणितगुण गुञ्जदूगुरुधनु-
र्धृतप्रेमा बाहुर्विकचविकरालव्रणमुख:॥26॥
षष्ठ अंक में लव को देखकर राम के मन के अवसाद को विश्राम सा मिलता है। राम स्वयं इसका कारण नहीं समझ पाते।9 राम के आत्मधिक्कार के एक दो एकालाप मिलते है। पहला - जब द्वितीय अंक में शम्बुक वध के पश्यात् वह अपने दक्षिण हस्त को धिक्कृत करते हैं। (श्लोक-10) दूसरा जब षष्ठ अंक में माताओं की मूर्च्छा का समाचार सुनकर वह अपनी निष्ठुरता को धिक्कारते है (श्लोक-42)
भवभूति की शैली वर्णनात्मक है। प्रकृति वर्णन के अतिरिक्त अन्य भावों का भी सशब्द वर्णन किया गया है। तृतीय अंक में शोक विह्वलता से मूर्च्छित राम को देखकर वासन्ती सीता को पुकारती है कि आकर राम की अवस्था देख जाए जो शोक के कारण विह्वल इन्द्रियों वाले तथा धूसरित कान्ति होने पर भी आँखो को प्रिय लग रहे है।10 सम्पूर्ण उत्तररामचरित में यत्र-तत्र विलाप के विस्तृत अंश प्राप्त होते हैं। प्रथम अंक में राम सीता परित्याग का निश्चय कर दीर्घ विलाप करते हैं।11 वहाँ विलापमूलक एकालाप हैं। दु:ख में व्यक्ति अतीत की घटनाओं का स्मरण कर और भी दु:खी होता है। वह उन सुखद क्षणों को बार-बार याद करता है जो जीवन में घट चुकी हैं तथा फिर दु:खी होता है। वहाँ स्मृति व्यंजक एकालाप हैं।
जीवत्सु तातपदेषु नूतने दारसंग्रहे
मातृभिशिश्चिन्त्यमानानां ते हि नो दिवसागता:॥7॥
एकालापों में कवि का भावुक व्यक्तित्व और अभिधामूलक व्याज शैली में अभिव्यक्ति की प्रवृति स्पष्ट है, जो कालिदास आदि से उनके एकालापों की भिन्न पहचान स्थापित करती है।
संदर्भसूचि ::
- अद्दैतं सुखदु:खयो ..................... प्रथम अंक - श्लोक 37
- प्रथम अंक - श्लोक 41, 42
- प्रथम अंक - पृ.32
- तृतीय अंक - 31 श्लोक, 32 श्लोक
- चतुर्थ अंक 3 - 5 श्लोक
- चतुर्थ अंक - श्लोक 24 (अर्धभाग) श्लोक 25
- चतुर्थ अंक - श्लोक 29
- पंचम अंक - श्लोक 9
- षष्ठ अंक - श्लोक 12
- तृतीय अंक - श्लोक 11, 12, 39
- तृतीय अंक - श्लोक 22
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प्रा.उर्वशी एच. पटेल
व्याख्याता संस्कृत
एन.पी.पटेल महिला आर्टस कॉलेज
आदर्श केम्पस, डेरी रोड, पालनपुर
बनासकांठा (गुजरात) |